विशेष: बदलते समाज में शिक्षा: रघु ठाकुर
आज विशेष में प्रस्तुत है देश के महान समाजवादी चिंतक व विचारक तथा लोसपा के राष्ट्रीय संरक्षक - रघु ठाकुर का लेख-
"बदलते समाज में शिक्षा":
वैश्वीकरण के दौर के बाद सरकारों का कल्याणकारी राज्य का दृष्टिकोण व्यवहार में बदल चुका है। भले ही यह अभी औपचारिक रूप से संवैधानिक बदलाव के रूप में न हुआ हो परन्तु व्यवहार में यह अमली जामा पहन चुका है, और सरकारों ने शिक्षा के क्षेत्र को लगभग निजी हाथों में देने के कदम उठाना शुरू कर दिये है।
बाल शिक्षा तो पहले से ही निजी हाथों में जा चुकी है तथा लगभग शत प्रतिशत नहीं तो भी 90 प्रतिशत शिक्षण संस्थायें बाल शिक्षा दे रहीं हैं। माध्यमिक और हाईस्कूल की शिक्षा के लिये शिक्षण संस्थायें सरकारें या स्वायत्त संस्थायें नहीं चला रही।
ब्रिटिश काल में 1881 में हंटर कमेटी ने अपनी रपट दी थी, जिसमें यह कहा गया था कि, नगर पालिका या डिस्ट्रिक्ट बोर्ड जैसी स्थानीय संस्थाओं को स्कूल खोलना चाहिये तथा स्थानीय कर का 50 फीसदी इन्हें देना चाहिये। उसके बाद ब्रिटिश काल में बहुत सारे स्थानीय संस्थाओं के स्कूल खोले गये। जिनमें लगभग निशुल्क शिक्षा बच्चों से लेकर हाई स्कूल तक दी जाती थी। मैं स्वतः नगर पालिका के द्वारा संचालित प्राथमिक शाला में पढ़ा हूॅ।
आजादी के बाद पांच वर्षीय योजना के माध्यम से भारत सरकार ने शिक्षा को अपने पंचवर्षीय नियोजन में मुख्य स्थान दिया था और हर पंच वर्षीय योजना में यह लक्ष्य रखा जाता था कि कितनी प्राथमिक शालायें, माध्यमिक शालायें, हाई स्कूल, काॅलेज, और वि.वि. आदि सरकार खोलेगी।
परन्तु 1995 के डब्लू.टी.ओ. के समझौते के बाद स्थिति एक दम बदली। सरकार ने न केवल पंचवर्षीय योजना को समाप्त कर दिया बल्कि चतुराई से शिक्षा के सरकारी दायित्व से भी हाथ खींच लिये। स्थानीय और सरकार द्वारा संचालित शिक्षण संस्थाओं को सुविधा व शिक्षा के स्तर की गिरावट के कारण से बन्द होने को लाचार कर दिया। दूसरी तरफ निजी शिक्षण संस्थाओं को अनुमति और फलने-फूलने की सुविधायें देकर एक ऐसी आकर्षक चुनौती सामने खड़ी कर दी कि सरकारी शिक्षा और शिक्षण संस्थायें पंगु जैसी बन गई। निजी शिक्षण संस्थायें आजादी के पहले या बाद में नहीं थी ऐसा नहीं है। आजादी के पहले डी.ए.वी. जैसी सामाजिक संस्थाओं द्वारा संचालित स्कूल थे परन्तु यह सामाजिक शिक्षा के दान के स्कूल थे और जिनका उद्देश्य मुनाफा कमाना नहीं था। बल्कि समाज अपने संसाधनों को शिक्षा में लगाता था और सस्ती तथा बेहतर शिक्षा देने का काम करता था इनमें मुनाफे का भाव या घाटे की चिंता नहीं थी बल्कि मामूली सी फीस के आधार पर ये शालायें चलती थी तथा अर्थ अभाव को समाज के दानवीर लोग पूरा करते थे। गरीब से गरीब व्यक्ति अपने बच्चों को उनमें पढ़ा सकते थे।
डाॅ. हरी सिंह गौर के द्वारा 1946 में स्थापित सागर विश्वविद्यालय ऐसा ही महान दान के आधार पर खड़ा किया गया था। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय या अलीगढ़ मुस्लिम विश्व विद्यालय भी चन्दे से शुरू किये गये थे, परन्तु वैश्वीकरण के बाद जो शिक्षा के निजीकरण का दौर आया है उसमें निजी शिक्षा संस्थाओं को बे रोक टोक शिक्षा के धन्धा करने की अनुमति मिल गयी है। हालांकि 1960 के दशक के बाद से ही मेडीकल, इंजीनियरिंग के क्षेत्र में प्राईवेट दुकानों को खोलने का सिलसिला शुरू हो गया था।
महाराष्ट्र और दक्षिण के प्रदेशों में विशेषतः शिक्षा की बड़ी-बड़ी दुकानें खोली गयी। जहाँ भारी डोनेशन और फीस लेकर विद्यार्थियों को शिक्षा बेची जाती थी। इसका असर चिकित्सा और तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र पर हुआ तथा इन क्षेत्रों की शिक्षा की गुणवत्ता में बहुत गिरावट आई। अब तो समूचे शिक्षा के क्षेत्र में इतने बड़े पैमाने पर निजी पूँजी के बीच से निजी शिक्षण संस्थाओं की फसल तैयार हो रही है, इसकी कल्पना करना कठिन है। बच्चों के स्कूलों की फीस मामूली तौर पर 1000-2000 रूपया है, और गरीब व मध्यवर्गीय व्यक्ति के लिये अपने बच्चों को पढ़ाना लाचार और कर्जदारी जैसा बन गया।
इन निजी शिक्षण संस्थाओं के राजनैतिक दबाव में सरकारों ने उन्हें एक प्रकार से लूटने की छूट दे दी और कोई दूसरा विकल्प न होने की लाचारी लोगों के सामने है। अपना उदार चेहरा बताने और निजी शिक्षण संस्थाओं का पेट भरने के लिये सरकार ने बैंकों के माध्यम से शिक्षा, ऋण की योजना शुरू की। मध्यम वर्ग और गरीब ने इस योजना को हाथों-हाथ लिया, क्योंकि जहाँ एक तरफ छात्र के लिये देश-विदेश की बेहतर नामवर संस्थाओं में शिक्षा के लिये साधन उपलब्ध हुये, वहीं इन्कम टैक्स में राहत और कुछ लोगों के लिये भ्रष्टाचार के काले धन को सफेद करने का मौका भी मिल गया। लोगों ने इस योजना को ऐसा कर्ज माना जिसे चुकाने की कोई बाध्यता नहीं है।
अब स्थिति यह है कि, बैंको का शिक्षाऋण मद में 67 हज़ार करोड़ रूपये बकाया है।
अब भारत सरकार ने उच्च शिक्षा के निजीकरण के लिये एक नया तरीका ईजाद किया है, कि शिक्षण संस्थाओं को अपने खर्च के लिये साधन स्वतः जुटाने होंगे। मानव संसाधन के इशारे पर उच्च शिक्षा अनुसंधान आयोग ने यह फरमान जारी किया है, कि विश्वविद्यालय आदि अपने खर्च के लायक आमदनी के स्त्रोत पैदा करें। जाहिर है कि इस निर्णय से सरकारी वि.वि. को अपनी फीस आदि बढ़ाना होगी और जब फीस, छात्रावास का व्यय, खाना आदि में बढ़ोतरी होगी तो अपने आप ऐसा वातावरण बनेगा कि निजी शिक्षण संस्थाओं और सरकारी शिक्षण संस्थाओं में शिक्षा व्यय लगभग समान हो जायेगा और छात्र तथा अभिभावक सोचेंगे कि जब फीस और खर्च समान ही है तो सरकारी शिक्षण संस्थाओं का औचित्य स्वयं ही समाप्त हो जायेगा। भारत सरकार ने पहले चरण के तौर पर यू.जी.सी. के स्थान पर ‘‘हेपा’’ नामक संस्था ईजाद की है।
अब पहले चरण में वि.वि. को उनको दिये जाने वाले अनुदान का 70 फीसदी ही सरकार देगी और शेष 30 प्रतिशत राशि की व्यवस्था वि.वि. को स्वतः करनी होगी। पर हेपा के अनुबंध के बाद दी गई राशि का 10 प्रतिशत कर्ज के रूप में दिया जायेगा, जिसे वापिस करना होगा। इसके लिये हेपा के साथ वि.वि. प्रबंधन को एम.ओ.यू. पर दस्तखत करना होंगे। इसके परिणाम स्वरूप धीरे-धीरे सभी विश्वविद्यालय कर्जदार हो जायेंगे और उनके निजीकरण का रास्ता खुल जायेगा। उद्योगपति कर्ज चुकाने में पूँजी लगायेंगे और शिक्षण संस्थाओं को खरीद लेंगे। काॅलेज और वि.वि. न केवल उच्च शिक्षा के क्षेत्र है बल्कि बौद्धिकता को तैयार करने के क्षेत्र भी है। इनकी बौद्धिकता इस प्रक्रिया से प्रभावित होगी तथा उच्च शिक्षा के संस्थान वैश्वीकरण के लिये अनुकूल मानस और नागरिक तैयार करने के केन्द्र बन जायेंगे।
ब्रिटिश काल में लार्ड मैकाले ने शिक्षा का प्रयोग अंग्रेजी राज के लिये अनुकूल नागरिक तैयार करने के लिये किया था। भारत सरकार हेपा के माध्यम से वैश्वीकरण और पूँजीवाद के लिये अनुकूल नागरिक तैयार करने को यह बदलाव कर रही है। यह दुखदः है कि हमारे देश का छात्र आन्दोलन भी वैचारिक रूप से सिकुड़ा है शायद इसलिये कि, यह सम्रांत लोगों के परिवारों का है और वे अपनी विषमताओं की सुविधाओं को ही कायम रखना चाहते है। शायद कुछ इसलिये भी इनके पीछे जो राजनैतिक धार्मिक या सामाजिक जमातें हैं उन्हें भी वैश्वीकरण से कोई परहेज नहीं और वे अपने अनुकूल राजनैतिक वातावरण बनाने के लिये उनका इस्तेमाल कर रहें हैं।
कारण जो भी हो परन्तु एक संभावना भी सामने है कि, छात्र अपने दिमाग में समता का बड़ा सपना लेकर चले तो एक बड़ी राष्ट्रीय घटना बन सकती है।
महात्मा गाँधी ने शिक्षण संस्थाओं को आजादी के आन्दोलन के केन्द्र में बदला था। डाॅ. लोहिया ने शिक्षण संस्थाओं और छात्र आन्दोलनों को गैर बराबरी मिटाने और हर प्रकार की बराबरी लाने की व्यवस्था तैयार करने का केन्द्र बनाया था। अब क्या देश के छात्र इन बड़े मानवीय लक्ष्यों के लिये आन्दोलित होकर व्यवस्था बदलने के सिपाही बनेंगे या निजी छोटे-मोटे स्वार्थ की पूर्ति के इर्द-गिर्द ही सिकुड़ कर रह जायेंगे। यह फैसला छात्र वर्ग को ही करना है।
-रघु ठाकुर-
swatantrabharatnews.com