विशेष: 2019 संसदीय चुनाव के निहितार्थ: रघु ठाकुर
विशेष में प्रस्तुत है "2019 संसदीय चुनाव के निहितार्थ" राजनैतिक पैगम्बर- महान समाजवादी चिंतक व विचारक तथा लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय संरक्षक - रघु ठाकुर का लेख
देश के संसदीय चुनाव के इतिहास के सबसे लम्बे दौर के चुनाव परिणाम 23 मई को घोषित हो गये और अमूमन अनुमान के अनुसार हाी परिणाम आये है। एजिक्ट पोल जो विधानसभा के चुनाव परिणामों में 5 माह पूर्व अपनी साख लगभग खो चुके थे ने अपनी साख को फिलहाल वापिस पा लिया है। कल चुनाव परिणामों के बीच मैंने फेसबुक पर एक पोस्ट की थी कि चुनाव में चाहे मौनयोग जीते या मिर्चयोग जीते कुल मिलाकर देश की जनता हारेगी। इस पर से मेरे कई मित्रों ने आपत्ति की और कहा कि आपकी टिप्पणी क्या जनमत का अपमान नहीं है जो मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार को चुन रही है। मैंने जो टिप्पणी की थी वह जनमत का अपमान नहीं है। बल्कि जन अपेक्षाओं और उसके क्रियान्वयन की संभावनाओं को लेकर की थी। जनमत का बहुमत तो जीतना ही है और हर चुनाव में बहुमत के आधार पर ही जीतने वाले की सरकार बनती है। परन्तु क्या इस जीत को जनता की जीत माना जाये या मतदाताओं के बहुमत की जीत माना जाये इसमें एक बारीक फर्क है-
1. 1971 के लोकसभा के चुनाव में गरीबी हटाओ के नाम पर श्रीमती इंदिरा गांधी दो तिहाई बहुमत से जीती थी परन्तु 1977 में वे स्वतः चुनाव हार गयी। क्योंकि जनता नहीं जीती थी गरीबी नहीं मिटी थी।
2. 1977 में जनता पार्टी को मतदाताओं ने सरकार बनाने व्यापक समर्थन दिया परन्तु भ्रष्टाचार, रोजगार, चुनाव सुधार जैसे मुद्दों पर अपेक्षित काम नहीं हुआ। और 1980 में जनता पार्टी चुनाव हार गयी तथा पुनः श्रीमति इंदिरा गांधी भारी बहुमत वापिस आ गयी।
3. 1984 में राष्ट्रीय एकता के लिये चिंतित मतदाताओं ने तीन चैथाई बहुमत से राजीव गांधी जी को प्रधानमंत्री चुना और उनसे ईमानदारी की अपेक्षा की। परन्तु 1989 में बेफोर्स के खरीद घोटाले के आरोप में वे चुनाव हार गये। 1991 में पुनः मतदाताओं ने कांगे्रेस को सरकार बनाने के लिये वोट दिया परन्तु 1996 में स्वदेशी की भावना ने उन्हें सत्ता से बाहर कर दिया तथा कांग्रेस और भाजपा को सीमित करते हुये तीसरे पक्ष को अवसर दिया।
4. 1999 में फिर मतदाताओं ने अटल जी के नेतृत्व में सरकार बनाने योग्य बहुमत भाजपा को दिया और 2004 में फील गुड जैसे नारों के बावजूद भी सरकार को हरा दिया।
5. 2014 में पुनः मतदाताओं के बहुमत ने राष्ट्रीय सुरक्षा के भाव से तथा काले धन को विदेशी बैकों से वापिस लाकर देश के विकास में लगाने की भावना से श्री नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद पर पहुंचाया और अब 2019 में पुनः उन्हें स्पष्ट और भारी बहुमत देकर सत्ता में पहुंचाया है।
जो मतदाताओं के बहुमत की जीत होती है परन्तु वह जनता की जीत नहीं हो सकती। जनता की जीत का तात्पर्य है कि चुनाव के पूर्व किये गये वादों पर कितना अमल हुआ।
2019 की श्री नरेन्द्र मोदी की जीत निःसंदेह मतदाताओं की जीत है जो जज्वाती व अपेक्षायें से भरी हुयी है। पुलवामा काण्ड के बाद जिस प्रकार कांग्रेस व अन्य विपक्षी दलों ने सर्जिकल स्ट्राईक पर उंगली उठाना शुरू किया उसे देश के मतदाताओं ने उचित नहीं माना और कांग्रेस तथा अन्य दलों ने श्री मोदी के अंधे विरोध में अपने आप को सेना के खिलाफ पक्ष बना लिया। सत्ताकांक्षी छोटे-छोटे संसदीय राजनैतिक दलों के अपने-अपने गणित के अनुसार इतने गठबंधन बना लिये कि आम मतदाताओं को इन गठबंधनों की सरकार राष्ट्रीय सुरक्षा की कसौटी पर ही खतरा लगने लगी। मतदाताओं का यह सोच था कि देश को इस समय एक स्थिर और मजबूत सरकार की आवश्यकता है, जो पाक आंतकवाद का मुकाबला कर सके और दुनिया में भारत को मजबूती के साथ खड़ा कर सके। इस राष्ट्रवादी सोच के साथ-साथ अन्तर मन में छिपी हुई धर्म समूह की भावनायें भी काम करती है। गैर भाजपा संसदीय दलों के बारे में देश के आम हिन्दू के मन में यह भावना है कि ये दल मुस्लिम समाज के नियंत्रण में चलने वाले दल है और मुस्लिम कट्टरता के पक्षधर। भाजपा का मुस्लिम विरोध भी मुख्यतः मजहबी श्रेष्ठता या महजवी कट्टरता के ही आधार पर होता है और काॅरपोरेट तथा उद्योग जगत का मीडिया सोची समझी योजना के तहत देश को हिन्दू और मुसलमान के कटघरों में बांटकर रखने का खेल खेलता है ताकि काॅरर्पोरेट सुरक्षित रहे और उनकी आर्थिक लूट पर कोई चर्चा न हो। कांग्रेस और भाजपा विरोधी दल भाजपा के मुद्दों पर जाकर लड़ते हैं। क्योंकि वे भी दिमागी तौर पर आर्थिक स्त्रोतों के कारण या वोट के लालच में कोई स्पष्ट भिन्न रेखा नहीं खींच पाते। कोई भी गैर भाजपा दल यह नहीं कहता कि हम डब्ल्यू.टी.ओ. छोड़ेगे, हम चीनी समान पर रोक लगायेंगे, हम हाथ के रोजगार के लिये मशीनीकरण क्षेत्र को सुधारेगे और उत्तरदायी बनायेगे परन्तु निजी हाथों में नहीं बेचेगे। अगर रफैल डील में भ्रष्टाचार का आरोप है तो हम रफैल समझौते को रद्द करेगें। कुल मिलाकर जो चुनावी रणनीति भाजपा की रही है कि शक पैदा करो और वोट लो वही रणनीति अन्य दलों की भी है। परन्तु वे यह भूल गये कि आम लोगों की नजरों में मोदी विश्वसनीय, मजबूत, परिवारवाद विरोधी की छवि के है। कांग्रेस या कांग्रेस समर्थक मीडिया ने सदैव श्री नरेन्द्र मोदी के ऊपर अतार्किक निजी हमले करने का प्रयास किया है। जिनसे देश की आम भावना सहमत नहीं होती। उनकी पत्नी, उनकी माँ, उनके भाई को लेकर जिस प्रकार के घटिया आरोप गढ़े गये उनसे लोगों में श्री मोदी को और ज्यादा समर्थन मिला।
2019 के लोक सभा चुनाव के कुछ और भी महत्वपूर्ण पक्ष है। लगभग 1 माह पहले मैने लिखा था कि भारतीय लोकतंत्र आगे तो बढ़ रहा है परन्तु धीमें-धीमें आगामी कुछ समय में राजा-महराजे लाचार होकर आमजन बनने को विवश हो जायेंगे। भले ही प्रचार के लिये ही सही परन्तु जब श्री ज्योतिरादित्य सिंधिया किसी दलित या गरीब के घर में झांकते है रोटी बनाते हैं। श्री राहुल किसी दलित के घर पर माँग कर रोटी खाते है। अपने को हिन्दू सिद्ध करने के लिये जाति, गोत्र और जनेऊ का बयान करते है तो इससे ही संकेत मिल जाता है कि अब नई युवा पीढ़ी रजवाडों को सामान्य इंसान बनाने के लिये लालायित है। कांगे्रस और गैर भाजपाई संसदीय दल वैसे भी मानसिक और वैचारिक तौर पर लड़ाई उसी दिन हार चुके थे। जब वे भाजपा के साथ कौन बड़ा हिन्दू, कौन कम हिन्दू, प्रतिस्पर्धा करने लगे थे। वे मंदिरों में जाकर अर्ध वस्त्रों में पूजा करते और फोटो छपवाते हैं। तांत्रिक और बाबाओं से हवन कराते है हमारे किलो में कितने मंदिर है कि गिनती बताते है। राजनैतिक चुनाव व काम पर केवल धार्मिक स्थलों या जाति संगठनों में जाकर फोटो खिचाते है तब वे भूल जाते है कि चुनाव कोई भी जीते परन्तु भाजपा का एजेण्डा तो पहले ही जीत गया। भाजपा को भी यह याद रखना चाहिये कि सामाजिक क्रान्ति की बुनियाद जिसके आधार पर 2014 और 2019 में उन्हें निरंतर सफलता मिली है उसकी बुनियाद महात्मा गांधी और डाॅ. राममनोहर लोहिया की रखी हुई है। 1967 में डाॅ. लोहिया ने नये और पुराने राजाओ और उनके परिवारवाद को न केवल चुनौती दी थी बल्कि देश के आम, गरीब दलित, पिछड़े और महिलाओं के मन में आत्म विश्वास जगाने के लिये कुछ प्रतीकात्मक प्रयोग किये थे। जिनका अर्थ कांग्रेस इसीलिये नहीं समझ सकी क्योंकि वह परिवार वाद की प्रवर्तक और जकड़ी हुई पार्टी है तथा कांग्रेस के दरबारियों ने कांगे्रस के नेतृत्व को यह समझाया कि लोहिया तो नेहरू के व्यक्तिसाः खिलाफ थे। जबकि लोहिया तो देश से सामंतवाद, राजतंत्र जिसकी संतान ही परिवादवाद होती है को मिटाकर आम आदमी की भागीदारी को बढ़ाने का प्रयास कर रहे थे। आज से 51 वर्ष पहले 1967 में ग्वालियर की महारानी श्रीमति विजयाराजे सिंधिया के खिलाफ सुखोरानी जामादारन को, रायबरेली से नेहरू के दामाद स्व. फिरोज गांधी के खिलाफ श्री नन्द किशोर नाई को प्रत्याशी बनाकर लोकतंत्र की जड़ता को तोड़ने का प्रयास किया था। आज जब सिंधिया को पिछड़ी जाति के व्यक्ति ने और श्री राहुल को एक महिला ने और देश के प्रधानमंत्री की दाबेदारी करने वाले को एक अति पिछड़ी जाति की महिला ने हराया तो लोहिया का डाला हुआ बीज ही अंकुरित हुआ है।
यदि समाजवादी विचारधारा के नाम के ताकतवर धड़ों के नेताओं-- श्री मुलायम, श्री लालू ने, जातिवाद और परिवारवाद का अनुगमन नहीं किया होता तो आज उस भूमि की राजनैतिक फसल जिसे लोहिया ने अपने विचार-बीज से खड़ा किया था तथा अपने खून पसीने से सीचा था को काटकर श्री मोदी नहीं ले जा पाते। परन्तु ऐसा लगता है कि परिवार, जाति, राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे सवालों पर श्री नरेन्द्र मोदी ने डाॅ0 के सूत्रों का ज्यादा अनुगमन किया है बजाय लोहिया के उन तथाकथित अनुयायियों के जो लोहिया के नाम को बेचकर उसी प्रकार सत्ता हासिल करना चाहते है जिस प्रकार गांधी के नाम को बेचकर कांग्रेस और माक्र्स के नाम को बेचकर माक्र्सवादी तथा दीनदयाल उपाध्याय के नाम को बेचकर भाजपाई सत्ता हासिल करने का खेल खेलते रहे।
इन चुनावों के बारे में मेरा यही निष्कर्ष है राष्ट्रीय सुरक्षा या राष्ट्रवाद, परिवारवाद और राजतंत्र तथा एकांकी सामाजिक वर्चस्व को तोड़कर आमजन की हिस्से की भावना अभिव्यक्त हुई है। गैर भाजपाई संसदीय दलों, कांग्रेस, सपा, बसपा, राजद, वामपंथी आदि को भी अपने तौर तरीकों को बदलकर जनविश्वसनीय बनाना होगा। गठबंधन के नाम पर जाति व राजनैतिक समूहों के गुणाभाग से हटकर एक वैचारिक, नैतिक समतामुखी, लोकतांत्रिक विकल्प का प्रयास करना होगा। अपने से कमजोर विचार को खत्म करने की बजाय उसे स्थान देना और संवाद करना शुरू करना होगा तथा आर्थिक नीतियों में राजनैतिक चलन और पैसों में ईमानदारी को स्थापित करना होगा। दो तिहाई बहुमत से जीतने वाली भाजपा को भी यह समझना होगा कि अभी मोदी और भाजपा जीते है जनता नहीं जीती। जीत में छिपी जनअपेक्षाओं और निहित संदेशों को समझकर सरकार चलाना होगा। अन्यथा पार्टियां या व्यक्ति चुनाव जीतते है और जनता हारती है। और जब जनता हारती है तो वह बड़ी से बड़ी सत्ताओं को हटाकर फेंकने में देर नहीं करती।
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