विशेष: मैं जानता हूं कि साया किसी के पास नहीं: अनिल अनूप
विशेष में प्रस्तुत है पत्रकार अनिल अनूप की प्रस्तुति:
"मैं जानता हूं कि साया किसी के पास नहीं"
देश फिर चुनाव के जरिए अपनी आत्मा को जगा रहा है और मुद्दों की खैरात में अपने लिए "अच्छे दिन" बटोरने की कोशिश करेगा। रविवार की चुनावी घोषणाओं ने तमाम ओहदेदारों को वास्तव में "सेवक" बना दिया और अचानक मतदाता की "ताकत" का सेहरा पहन कर देश अपने भीतर झांकने लगा। मतदाता की हैसियत का पर्व दिल्ली से शिमला तक एक समतल मैदान पर और इस लिहाज से हिमाचल की चार सीटों के मायने कम नहीं होते। जाहिर है देश के मुद्दे हिमाचल तक खड़े होंगे, लेकिन इस बहाने जयराम सरकार के ताज की परीक्षा भी होगी।
यह हिमाचल के सांसदों के इम्तिहान का वक्त है या उन गूंगे पत्थरों का संवाद भी है, जिन्हें पिछले कुछ समय से बगल में छिपाए सत्ता पक्ष घूम रहा था या जिन्हें शिलान्यास का मंच बनाने की मेहनत इस दौरान हुई है। यहां हिमाचल के करीब 88 हजार नए मतदाताओं के चुनाव पथ का फैसला भी इस दौरान होगा। नए मतदाताओं की लोकतांत्रिक महत्त्वाकांक्षा उस व्यवस्था से मुखातिब है जो हर बार सपने तो दिखाती है, लेकिन हालात की विवशताओं से घिरे युवा को दिशा नहीं मिलती। जाहिर है हिमाचली बेरोजगारी के आंकड़ों से भी चुनाव का परिदृश्य बनेगा और इस लिहाज से रोजगार कार्यालयों की सूचियां, शिक्षण संस्थानों से निकलते छात्र और नौकरी ढूंढ रहे स्नातकए स्नातकोत्तर, एमबीए, इंजीनियर, डाक्टर या अन्य प्रशिक्षित बच्चे तथा उनके अभिभावक अपना अभिमत बताएंगे। लोकसभा का चुनावी दौर अपनी संवेदनाओं को प्रमाणित करेगा और इस हिसाब से मुद्दों का चयन और नारों का उद्घोष "नामुमकिन को मुमकिन" करने जैसे प्रयास करेगा, फिर भी जब मुकाबले के शब्द बाण चलेंगे तो मोदी सरकार के पांच सालों का हिसाब शीशे पर उतरेगा। यहीं से वे रिश्ते परखे जाएंगे जो किसी भी प्रधानमंत्री से सीधे जुड़ते हैं। संवाद के अपने तौर तरीके में नरेंद्र मोदी का जुड़ाव समाज के अंतिम छोर तक न होता, तो भाजपा की वर्तमान केंद्र सरकार का वर्चस्व इस तरह न होताए लेकिन अब प्रदर्शन की मुखर भाषा भी समीक्षा करेगी। हिमाचल के लिए यह दूसरा अवसर था जब कोई अपना जैसा प्रधानमंत्री दिल्ली में विराजित रहा। जाहिर है इस रिश्ते की समीक्षा अब उन संदर्भों से होगी जो कभी स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी को बतौर प्रधानमंत्री हिमाचल के साथ सार्थक भूमिका में देख चुके हैं। रोहतांग सुरंग से लांघते विकास या औद्योगिक पैकेज के हिसाब में वाजपेयी हमेशा हिमाचल के मार्गदर्शक रहेए तो अब नरेंद्र मोदी के हिमाचल के प्रति "उपकार" की समीक्षा होगी। अटल मंत्रिमंडल में श्रेष्ठ भूमिका निभा चुके शांता कुमार को मार्गदर्शक बनाने की कसौटियां क्या जीत के लायक समर्थन जुटा पाएंगी या तरसते हिमाचल को केंद्र सरकार में पदों का आबंटन बराबरी से हुआ। कयास थे कि पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल का दोस्ताना रुख मोदी सरकार से बहुत कुछ बटोरेगा या हिमाचली शक्ति के प्रतीक रहे जगत प्रकाश नड्डा अपने प्रदेश को मालामाल कर देंगे, लेकिन एम्स की हाजिरी में कुछ देर हो गई, केंद्रीय विश्वविद्यालय पर सीनाजोरी या फोरलेन में बजट की चोरी हो गई। आशाओं की पटरी पर न ट्रेन दौड़ी और न ही हवाई अड्डों के विस्तार की पैमाइश हुई। लोकसभा चुनाव की बिसात पर कांग्रेस को पुनः खेलने का अवसर मिल रहा है। क्या हिमाचल कांग्रेस अपने घर को संवार पाएगी या कुनबे को "भाजपा परिवार" के बराबरी पर ला पाएगी। हमीरपुर में उम्मीदवार का चयन क्या भाजपा के हाशिए से सुरेश चंदेल को कांग्रेस में जोड़ लेगा या हिमाचल में विपक्ष के नेता मुकेश अग्निहोत्री पार्टी के हल को यहां से जोत पाएंगे। कांगड़ा में ऐसी ही असमंजस पर भाजपा सवार है, तो देखना यह होगा कि 85 वर्षीय शांता की जवानी का नगमा क्या फिर से पार्टी की जुबान पर चढ़ता है। चुनावी किश्तियां हिमाचल के पौंग व गोबिंदसागर बांध में तैरेंगी और विस्थापित मन पुनः यह उम्मीद करेगा कि कभी तो उस पार जाना होगा। हिमाचल फिर से अपने अधिकारों की टोह लेगा और चुनावी फेहरिस्त में कमोबेश हर तरह की सच्चाई का नपा तुला विश्लेषण करके जागरूक साबित होगा।
चुनाव कहीं कह रहा है:
"तमाम ऊंचे दरख्तों से बच के चलता हूं,
मैं जानता हूं कि साया किसी के पास नहीं।"
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