विशेष: आतंक जम्मू-कश्मीर का प्रारब्ध तो नहीं!
विशेष में प्रस्तुत है पत्रकार✍ केवल कृष्ण पनगोत्रा के लेेख
"आतंक जम्मू-कश्मीर का प्रारब्ध तो नहीं !-"
14 फरवरी की आतंकी वारदात ने जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद का बहुत ही भयानक चेहरा दिखाया।
सवाल उठे, रोष पैदा हुआ, सरकार ने सेना को खुली छूट दी, अलगाववाद पर शिकंजा मजबूत हुआ, पाकिस्तान विश्व में अलग-थलग पड़ा।
उसकी अर्थव्यवस्था का बुरा हाल है, इमरान खान कटोरा लेकर घूम रहा है, संसाधन बेचे जा रहे हैं। फिर भी न सीमा पार से गोलाबारी रुकी और न ही आतंकी वारदातें रुकीं।
आतंकवाद और पाकिस्तान में आतंकी कैंपों पर हवाई हमले पर सियासत और टीवी पर चर्चायें भी गरम हुई।
लेकिन इतना होने के बावजूद भी हर आमो-खास परेशान हो रहा है। कुछ चिंता है, कुछ सवाल हैं।
आतंकवाद जम्मू-कश्मीर का प्रारब्ध तो नहीं ?-
आज के हालात में किसी से पूछ कर तो देखो। समझ के दो पहलू सामने आते हैं। राजनीति की कुछ हद तक समझ रखने वाले तो कहेंगे कि कश्मीर एक पेचिदा मसला है और समाधान आसान नहीं। समाधान आसान होता तो कब का हो गया होता। वहीं सतही सियासत की छोछेबाजी के असर से लबरेज लोग तो कहते हैं कि कश्मीर में आतंकवाद के पालनहार पाकिस्तान को ही क्यों न एक बार नेस्तानाबूद कर दिया जाए।
कहीं होश है तो कहीं जोश है। आज की तारीख का यही लबोलुआव है और खासकर 14 फरवरी के पुलवामा हमले के बाद से, जब देश के चालीस से ज्यादा जांबाज जनता की सुरक्षा करने की दिनचर्या के दौरान शहीद हो गए। जानी नुक्सान की दृष्टि से पुलवामा का यह हमला अब तक का एक बड़ा आतंकी हमला था और उतना ही जनरोष भी स्वाभाविक ही था। हमला तो हमला ही है । चाहे कायराना कहें या जैसा मर्जी कहें। जान और माल का नुक्सान तो करता ही है।
इसलिए ही पूरे देश में रोष का ज्वार था, दर्दनाक चीखें थी और पीड़ा का एहसास था।
यह था, यह है और संभवतः रहेगा भी।
क्यों ?-
क्योंकि कश्मीर में बहने वाले खून और सियासत का रिश्ता बड़ा नामुराद है। सियासत जहां की मर्जी हो, बाहरी हो या अंदरूनी हो। सियासत चीन की हो या अमेरिका की हो, अफगानिस्तान में हो या पाकिस्तान में हो, ईराक में हो या ईरान में हो। सत्ता और सियासत किसी भी युग की हो या किसी दौर की हो। सियासत और सत्ता का खून और लाशों से बड़ा गहरा और पेचिदा रिश्ता है।
अब खून जम्मू-कश्मीर के निर्दोष नागरिकों का हो, सुरक्षा बलों के जवानों का हो, हिन्दू का हो या मुसलमान का हो, सियासत स्वार्थ के दाव-पेंच खेलने से बाज नहीं आती।
कश्मीर सूबे में स्थानीय अलगाववादियों की मदद से पाकिस्तान और उसके विदेशी हमदर्दों ने 1988-89 से ही अलगाव की सियासत का मायाजाल बिछाया है। इस मायाजाल की गिरफ्त में कश्मीर की मुख्यधारा की सियासत भी कायल हो चुकी है।
इस समय कश्मीर केंद्रित सियासतबाज पाक परस्त अलगाववादी सियासत के खास शिकार नजर आ रहे हैं। वोटों की फसल जम्मू और कश्मीर संभाग नाम के दो खेतों से काटी जाती है।
14 फरवरी के पुलवामा घटना के बाद भाजपा पाकिस्तान के बालाकोट पर वायुसेना के हवाई हमले को भुनाती दिखाई दे रही है। कांग्रेस पसोपेश में है। पीडीपी और नेकां के वोट बैंक का बड़ा भाग कश्मीर में है। दोनों कश्मीर केंद्रित पार्टियों को खाना भारत से है मगर गाना अलगावादियों के सुरताल में है। जम्मू-कश्मीर में सक्रिय दूसरी पार्टियां भी पुलवामा के बाद की सियासत से अछूती नहीं हैं। हालांकि सियासत के कुछ हलके विकास और दूसरी विसंगतियों को प्राथमिकता की बात भी करते हैं मगर मोटे तौर पर देश की सियासत में इस समय विकास का पुट कमजोर और पुलवामा के बाद सियासी देशभक्ति से लबरेज पाकिस्तान को सबक सिखाने का पुट मजबूत है। पाकिस्तान को सबक सिखाने से किसे एतराज हो सकता है मगर सिखाया कब और कैसे जाएगा ?-
जिस पाकिस्तान पर झाग निकाली जा रही है वो तो अमेरिका और चीन का लाडला भी है। अगर पुलवामा न होता तो चुनावी सियासत का रूप-स्वरूप ही कुछ और होता। विकास, भ्रष्टाचार, भूख, गरीबी और बेरोजगारी पुलवामा के बाद गरम नहीं नरम मुद्दे हैं।
पार्टी कोई भी हो पुलवामा में बहे जवानों के खून पर राजनीति चरम पर है।
भाजपा के लिए सरकार के फैसले बड़े हैं जबकि विपक्ष के लिए सेना पराक्रम बड़ा है।
भाजपा जम्मू.काशमीर में आतंकवाद और पाकिस्तान से सख्ती के मूड में जनता के मूड को भांप रही है और कांग्रेस भूतपूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की हत्या के कारण आतंकवाद से लड़ने और आतंकवाद की स्वयं शिकार होने की बात करती आ रही है।
मगर सत्ता और स्वार्थ की आश्चर्यजनक सियासत के बीच सुखद एहसास यह है कि जनता के लिए देश सर्वोपरि है, लाशों पर राजनीति करने वाले सियासी खेमे नहीं हैं।
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