विशेष: नापाक सियासत: अनिल अनूप
पाकिस्तान की पत्रकार मोना आलम को कुछ टीवी बहसों के दौरान सुना है। बेशक वह सुंदर और सुशिक्षित पत्रकार हैं, लेकिन कट्टरपंथी भी हैं। उन्हें सिर्फ पाकिस्तान के सरोकार ही पसंद हैं। मोना ने बहस के दौरान राजदीप सरदेसाई, रवीश कुमार, बरखा दत्त सरीखे भारतीय पत्रकारों के नाम बार-बार उद्धृत किए हैं। यह भी कहती रही हैं कि आप अपने ही "हिंंदू", "इंडियन एक्सप्रेस" जैसे अखबार पढ़ लें तो पुलवामा हमले और उसके बाद बालाकोट, पीओके में मिराज-2000 के हवाई हमलों की कुछ और सचाई सामने आ जाएगी। चूंकि मोना आलम पाकिस्तानी पत्रकार हैं, लिहाजा अपने देश की जुबान और भाषा में ही बात करेंगी, लेकिन हमारे विपक्ष की जुबान और सोच "पाकिस्तानी" क्यों है?- हमारे विपक्ष के 21 दल उसी संदेह और सवाल के साथ वायुसेना के आपरेशन पर भी सवाल उठाएं, तो यह घोर सियासी लगता है, लेकिन देश-विरोधी भी है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कहती हैं कि उन्होंने "न्यूयॉर्क टाइम्स" में खबर पढ़ी थी कि हवाई हमले में एक भी आतंकी नहीं मारा गया। सरकार स्पष्ट करे कि बालाकोट और पीओके में कितने बम, किन लोगों पर बरसाए गए?- दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने तो अपनी संवैधानिक सीमा ही लांघ दी, जब उन्होंने विधानसभा में ही चीख-चीख कर कहा कि भाजपा और मोदी 300 सीट जीतने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। वे पुलवामा भी करवा सकते हैं। राष्ट्र की सरकार और सेना के पक्ष में प्रशंसा और सम्मान के प्रस्ताव पारित करने के बजाय विपक्ष के 21 दलों "निंदा प्रस्ताव" पारित किया है। ऐसा लगता है मानो चुनाव जीतने के अलावा हमारे दलों का कोई और सरोकार और लक्ष्य नहीं है। टीवी चैनलों पर भी विपक्षी दलों के प्रवक्ताओं के तर्क वही हैं, जो वे असंख्य बार उठा चुके हैं। चुनाव के पहले उनका सामाजिक, आर्थिक, किसानी, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि का एजेंडा नेपथ्य में कहीं दफन है, लेकिन एकमात्र एजेंडा सुनाई दे रहा है- मोदी को हटाना है। बेशक हमारी व्यवस्था में सरकार और सेना तो परस्पर पूरक हैं, तो विपक्ष किसकी निंदा कर रहा है। एयर वाइस मार्शल, मेजर जनरल और एडमिरल स्तर के तीनों सेनाओं के शीर्ष अधिकारियों ने ब्रीफिंग करके देश को खुलासा कर दिया कि पाकिस्तान के खिलाफ कैसे आपरेशन किए जा चुके हैं। उनके सेटेलाइट चित्र, वीडियो प्रमाण भी उपलब्ध हैं, लेकिन यह सरकार का विशेषाधिकार है कि उन साक्ष्यों को किस मौके पर दिखाया जाए या कितने सबूत दिखाए जाएं अथवा उन्हें सार्वजनिक ही न किया जाए। दरअसल विपक्ष की चिंता चुनावों के मद्देनजर ही है। मौजूदा हालात में एक बार फिर आम जनता प्रधानमंत्री मोदी के पक्ष में लामबंद होता दिख रहा है। ऐसी जन-प्रतिक्रिया स्वाभाविक भी है। यदि 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में हमारी महान जीत का श्रेय कांग्रेसी आज भी बार-बार तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को देते हैं, तो सेना के सीमापार आक्रमण पर राजनीतिक निर्णय लेने वाले प्रधानमंत्री मोदी को भी श्रेय क्यों न दिया जाए। हमारे देश में सेना राजनीतिक व्यवस्था के अधीन काम करती है, तो फिर मौजूदा परिदृश्य में प्रधानमंत्री मोदी को निशाना क्यों बनाया जा रहा है?- यह संकट और तनाव का दौर है। "अघोषित युद्ध" अब भी जारी है। जैश का सरगना आतंकी मसूद अजहर का इंतकाल हो गया है या नहीं, पाकिस्तान उसकी पुष्टि करने में भी अचकचा रहा है। ऐसे आपातकाल में पुलवामा नरसंहार के बाद सभी प्रमुख दलों ने सरकार और सेना के साथ खड़े रहने का आश्वासन दिया था, लेकिन हकीकत यह है कि सभी विपक्षी प्रधानमंत्री मोदी को गालियां देने में जुटे हैं। साफ हो गया है कि हमारी सियासत इतनी नीच है कि राष्ट्रीय संकट के दौर में भी हम एकजुट नहीं रह सकते। चुनाव जीतकर सरकार बनाना ही हमारे दलों का एकमात्र मकसद है, ताकि "मलाई" चाटने को मिल सके। बेशक पाकिस्तान ऐसी सियासी स्थितियों के चटखारे ले रहा होगा, पाकिस्तानी तालियां बजा रहे हैं, यह उनके टीवी चैनलों पर सरेआम देखा जा सकता है।
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