संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने जम्मू.कश्मीर में किसी भी आतंकी हमले पर पहली बार पारित किया निंदा प्रस्ताव
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने जम्मू-कश्मीर में किसी भी आतंकी हमले पर पहली बार निंदा प्रस्ताव पारित किया है। यह पाकिस्तान की निंदा है कि वह आतंकवाद का संरक्षक है। यह जैश-ए-मुहम्मद आतंकी संगठन के हत्यारे कारनामों की भर्त्सना है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव गुटेरस के सामने पाकिस्तान का विदेश मंत्री कुरैशी घुटने टेक कर गुहार करता रहा कि भारत को क्षेत्र में तनाव कम करने को मनाया जाए। विश्व स्तर पर पाकिस्तान का विरोध बिलकुल पारदर्शी है। बेशक पुलवामा आतंकी हमले के बाद 50 से अधिक देशों ने निंदा.प्रस्ताव पारित किए हैं और आतंकी हरकतों, साजिशों को खारिज किया है, लेकिन सिर्फ अमरीका और फ्रांस ने ही पाकिस्तान का नाम लेकर आतंकवाद पर उसे हड़काया और चेताया भी है। चेतावनी सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव में भी निहित है और फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ) के फैसले में भी है।
सुरक्षा परिषद ने निंदा.प्रस्ताव उस स्थिति में पारित किया है, जब आतंकवाद की परिभाषा भी संयुक्त राष्ट्र में तय नहीं हो सकी है। यदि एक पक्ष हमलावर लोगों को आतंकवादी मानता है, तो दूसरा तबका उन्हें "स्वतंत्रता सेनानी" करार देता है। ऐसे बुनियादी और सैद्धांतिक विरोधाभासों के बावजूद सुरक्षा परिषद ने भारत की दलीलों का सम्मान किया है और पाकिस्तान, जैश के नामों का प्रस्ताव में उल्लेख कर पड़ोसी देश को "आतंकवाद की पनाहगाह" माना है। लिहाजा यह भारत के राजनयिक प्रयासों की बेहद शानदार और सकारात्मक जीत है। जिन राजदूतों ने व्यक्तिगत मुलाकातें कर या फोन पर संपर्क कर इस कूटनीति को कामयाब किया है, वे भी बधाई के पात्र हैं।
अभी तो विभिन्न देशों में तैनात हमारे डिफेंस अटैची सबूतों के आधार पर खुलासा करेंगे कि पाकिस्तान की आतंकवाद को पैदा करने, उसे पनपने और विस्तार देने में कितनी बड़ी भूमिका है।
फिर भी इस सफलता की कोख में बेहद अहम सवाल पल रहे हैं कि सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव में जैश के सरगना मसूद अजहर का नाम क्यों नहीं लिया गया?-
सुरक्षा परिषद ने इतने "जघन्य और कायराना" (अंग्रेजी में यही शब्द प्रस्ताव में लिखे गए हैं) आतंकी हमले के बावजूद पाकिस्तान को "आतंकवादी राष्ट्र" घोषित करने की चेतावनी क्यों नहीं दी ?-
आखिर संयुक्त राष्ट्र के स्तर तक चीन की "दादागीरी और पाकिस्तान की पैरोकारी जी-20, यूरोपीय; सार्क और आसियान आदि के प्रमुख देश कब तक स्वीकार करते रहेंगे।
क्या एफएटीएफ आतंकी फंडिंग के मद्देनजर पाकिस्तान को "ग्रे लिस्ट" में ही रखेगी या उसे "काली सूची" में भी डाला जाएगा।
हालांकि इतने भर से ही हम पुलवामा का प्रतिशोध नहीं ले सकते और न ही शहीदों के परिवारों और समर्थकों का गुस्सा शांत कर सकते हैं।
हम अब भी आश्वस्त हैं कि हमारी अतुलनीय सेना पाकिस्तान के खिलाफ पलटवार जरूर करेगी, लिहाजा हम प्रतीक्षारत हैं और कार्रवाई को लेकर उतावले और असहिष्णु नहीं हैं।
लेकिन यह नंगी आंखों का सत्य है कि पाकिस्तान बौखलाहट में है। प्रधानमंत्री मोदी ने भी टिप्पणी की है कि पाकिस्तान में हड़कंप मचा है। नतीजतन गांव के गांव खाली कराए जा रहे हैं। घरों में "ब्लैक आउट" की हिदायतें दी गई हैं। किसी भी आपदा की स्थिति के मद्देनजर सैन्य अस्पताल खाली कराए गए हैं। लोगों को बंकरों में जाने की अपील की जा रही है। जिन इलाकों में बंकर नहीं हैं, वहां तुरंत बंकर बनाने के आदेश दिए गए हैं। पाकिस्तान की हर सुबह इस आभास के साथ शुरू होती है कि भारत कभी भी हमला कर सकता है। आतंकी सरगना मसूद अजहर को सेना के किसी अस्पताल में छिपाया गया है, ऐसी खबरें आ रही हैं। जैश के बहावलपुर स्थित मुख्यालय को तो सेना ने अपने कब्जे में ले लिया है। माहौल दहशत का है, बेशक पाकिस्तान डींगें हांकता रहे।
अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का बयान भी महत्त्वपूर्ण है कि भारत कोई बड़ा कदम उठाने की सोच रहा है। वहां के बड़े अखबार "वाशिंगटन पोस्ट" ने टिप्पणी की है कि पाकिस्तान आतंकवाद की नर्सरी है।
इधर प्रधानमंत्री मोदी बयान देकर देश की जनता के धैर्य को आश्वासन देने में जुटे हैं कि चुन-चुन कर हिसाब लिया जाएगा, पाकिस्तान का दाना-पानी बंद किया जाएगा और अंततः आतंक की फैक्ट्री पर ताला लगाने का काम भी होगा।
यह आश्वासन राजनीतिक भी लगता है, लेकिन संकट के दौर में प्रधानमंत्री के आह्वान को सुनना भी जरूरी है।
हमारा मानना है कि जब तक पाकिस्तान के खिलाफ कोई निर्णायक कार्रवाई नहीं हो जाती, तब तक आम चुनाव नहीं कराए जाने चाहिए।
ऐसा कारगिल युद्ध के दौर में भी हुआ था कि चुनाव छह महीने टाल दिए गए थे। बहरहाल अंतिम निर्णय कैबिनेट और चुनाव आयोग को लेना है।
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