विशेष: क्या यह पृथ्वी हमारी नहीं ?-
"विशेष" में प्रस्तुत है, "पंजाबी विश्वविद्यालय के छात्र- सन्तोष कुमार का लेख"
धरती हमारे जीवन का आधार है। जिसपर हर एक प्राणी निर्भर करता है, धरती बिना किसी भेद भाव के सबको स्थान देती है। किसी भी देश का नागरिक हो, किसी भी रंग का हो, किसी भी जाती का हो, अपाहिज हो, सुन्दर हो, कुरूप हो, धनी हो। सब यहाँ बराबर है। लेकिन अगर धरती ने अपनी प्रकृति सबके लिए बनायीं और सबको उसमें रहने की अनुमति दी, तो फिर इंसान ने ये पाप कैसे कर दिया।
आज इंसान धरती पर कब्ज़ा कर चुका है। समुद्र पर भी उसी का राज है। कहीं "ब्यापार" के नाम पर, तो कहीं "प्रापर्टी या घर" के नाम पर। फिर भी उसकी भूख नहीं मिटी, जंगल तक उसने नहीं छोड़े। धरती पर ये इसलिए संभव हो सका है। क्योंकि मनुष्य के पास बुद्धि है, ताक़त है। परंतु अन्य प्राणियों के पास चालाकी नहीं। सभी पशु-पक्षी आज बेघर हैं। उन्हें घर मिलता है जब तक मनुष्य को उनसे लाभ हो, बाद में उन्हें छोड़ दिया जाता है मरने।
अगर ऐसी परिस्थिति किसी मनुष्य पर आये तो उसे उस दर्द का आभास होगा, किन्तु यह असंभव है। जंगल काटे, जानवरों के घर नष्ट किये। उनके घोंसले टूट गए वृक्षों के कटने से। चिड़ियाघर बनाये इंसान ने, ग़ुलाम बनाकर रखते हैं जानवरों को। उनसे पैसे कमाते हैं। इस पृथ्वी पर 70% भाग भूमि है। जो कम नहीं। तो फिर क्या ज़रुरत है अन्य प्राणियों को ग़ुलाम बनाने की। ये धरती जितनी हमारी है, उतनी ही उनकी भी है। कुदरत की निगाहों में मुजरिम बनना ठीक नहीं। उन्हें भी दर्द होता है, तकलीफ होती है। परंतु वो बेबस हैं अपना दर्द बयां करने में।
अगर भगवान् ने हमें ये सब खूबियां दी है तो हमें उनका सहारा बनना चाहिए। वो हमसे धरती नहीं मांगते, न ही पैसा मांगते हैं । वो भी हमारी तरह भगवान की रचना हैं। उनसे प्यार करना हमारा धर्म है। उनमे न तो लालच है, न द्वेष। हम तो अपनी लालच के अधीन कोई काम करते हैं। वो कुदरत के रंग हैं। उन्हें भी जीने दो, क्योंकि ये धरती जितनी हमारी है उतनी ही उनकी भी है।
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