विशेष: गांधी-लोहिया के विचारों में है बेरोजगारी का हल: रघुठाकुर
"देश ही नहीं, पूरे विश्व में बढ़ रही बेरोजगारी की गम्भीर समस्या और उसके हल" के लिए प्रख्यात समाजवादी चिंतक व विचारक तथा लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय संरक्षक- राजनैतिक पैगम्बर- रघु ठाकुर का यह "लेख" उन्ही के शब्दों में प्रस्तुत है:
"बेरोजगारी" अब न केवल भारत में बल्कि समूची दुनिया में एक गंभीर समस्या बन रही है। हालांकि यूरोप और अमेरिका के देशों में अभी बेरोजगारी की समस्या उतनी चिंताजनक नही हुई जितनी भारत व एसियाई और अफ्रीकी देशों में है।
संभवतः इसका एक कारण यह भी है कि, एसियाई अफ्रीकी देशों की आबादी का घनत्व तुलनात्मक रुप से ज्यादा है। भारत की 130 करोड़ की आबादी में इस समय युवाओं की संख्या 70 - 80 करोड़ के आसपास है और इसलिये लोग यह कह कर प्रसन्न भी होते है कि भारत युवाओं का देश है तथा इसे भारत के विकास और तरक्की का आधार मानते है।
परंतु केवल युवाओं की संख्या के आधार पर तरक्की की संभावनाओं को खोजना एकमात्र निर्णायक कसौटी नही हो सकती। देश की अधिंकांश "युवा शक्ति" बेरोजगार है और युवा शक्ति का एक हिस्सा या तो अर्ध बेरोजगार है या संयुक्त परिवार के आधार पर जीवन जी रहा है। अन्यथा अपराध की दुनिया में रोजगार तलाश रहा है।
तकनीक के विकास से उपभोग की स्थितियाॅ बढ़ी है और इसे भीे लोग अमूमन विकास की कसौटी मान लेते है। हालांकि "तकनीक का विकास भी बेरोजगारी को बढ़ाने का एक बड़ा माध्यम बन रहा है"। तकनीक का उपयोेग संपन्न, समृद्व और पढ़े लिखे तबके में अपवाद छोड़कर "नशे" जैसा फैल रहा है।
लोगो के जीवन स्तर को तय करने के लिये जो मापदंड तय किये गये है वे एक प्रकार से भ्रामक मापदंड है। जैसे कुछ संस्थाये और लोग संपन्नता का निर्धारण करने के लिये टी.वी./फ्रिज/कार/ मनोरंजक खर्च, कीमती वस्त्र, कीमती सामान का उपयोग जिसे ब्रान्डेड सामान कहा जाता है आदि को "आधार" बनाते है।
खुराक के आधार पर जो कसौटी बनायी गई है वह भी बहुत तार्किक नही है। अमूमन गरीबी-अमीरी के निर्धारण का एक आधार यह भी बनाया जाता है कि ग्रामीण समाज के आम व्यक्ति के लिये कितनी कैलोरी की खुराक मिल पा रही है। परंतु इसके निर्धारण में पौष्टिकता और गुणवत्ता का अभाव नही परखा जाता। एक ग्रामीण मजदूर अपना पेट भरने के लिये आठ-दस रोटी खाता है जिससे उसे 1200 से 1500 कैलोरी मिल जाती है जो कि दोनो टाइम में मिल कर 2200 से 2400 कैलोरी होती है लेकिन वह जो रोटी खाता है उस रोटी के साथ खाने के लिये उसके पास क्या वस्तुयें है? उसके खाने में मुख्यतः आटा है। घी, दूध, सब्जियां, फल या सूखे मेवा आदि उसके भोजन तालिका में नही है और न हो सकते है। दाल के नाम पर या सब्जी के नाम पर कुछ पनीली सी दाल या सब्जी उसके खाने का हिस्सा है। और वह कोई पौष्टिकता या ताकत के लिये नही बल्कि रोटी के निवाले को गले के नीचे भेजने के लिये गले को तर रखने के लिये ही उपयुक्त होता है।
"आक्सफेम" की ताजा रपट जो दावोस के वर्ल्ड इकानोमिक फोरम में प्रस्तुत की गई है, के अनुसार देश के अरबपतियों की सम्पति में हर दिन 22 सौ करोड़ रुपये की वृद्वि होती है।
"अमीरो" के शीर्ष के एक प्रतिशत अमीरो की संपति में पिछले एक वर्ष 39 प्रतिशत की वृद्वि हुई है जबकि देश की पचास फीसदी आबादी की संपत्ति में मात्र तीन प्रतिशत का इजाफा हुआ है। एक झोपड़ी वाले, एक आर्थिक कमजोर वर्ग के एक कमरे के मकान में रहने वाले, एक सायकिल वाले की संपति में अगर तीन प्रतिशत इजाफे की वास्तविक गणना की जाये तो वह मुस्किल से साल भर में 3 से 6 हजार की सपत्तिक वृद्वि होगी और अमीरो की संपत्ति में अगर 12.5 प्रतिशत की वृद्वि को उनकी संपत्ति के आधार पर आंका जाये तो औसतन ढाई अरब डालर यानि 12 से 15 हजार करोड़ रुपये की वृद्वि होगी। इसलिये आंकड़ो को केवल गणित के प्रतिशत या खुराक को केवल कैलोरी की गणना मात्र से समझना कठिन है।
"विकास" के नाम पर "विनाश" की यह कहानी अकेले भारत की नही है बल्कि समूची दुनिया की है।
समूची दुनिया में गरीबो की कुल आबादी में से पचास प्रतिशत आबादी की संपत्ति बढ़ने के बजाये घटी है और नीचे की आधी गरीब आबादी की संपत्ति में 11 प्रतिशत की कमी आयी है। पचास फीसदी गरीबो की संपत्ति में भी 6 प्रतिशत कमी आयी है। यानि देश और दुनिया की सच्चाई यह है कि अमीरो की सम्पत्ति साढ़े बारह प्रतिशत की दर यानि पन्द्रह हजार करोड़ रुपया प्रति वर्ष की दर से बढ़ रही है और गरीबो की संपत्ति 11 प्रतिशत की दर से औसतन 4 से लेकर 6 हजार रुपया प्रति वर्ष की दर से घट रही है। देश के 119 अरबपतियो की संपत्ति बढ़कर 28 लाख करोड़ रुपया हो गई है।
अकेले मुकेश अंबानी की संपत्ति 2.8 लाख करोड़ रुपया से अधिक यानि 3 लाख करोड़ के बराबर है।
भारत सरकार और देश के राज्यो की सरकारे मेडिकल जनस्वास्थ्य और पानी की आपूर्ति पर 2.8 लाख रुपया प्रति वर्ष खर्च करती है। जबकि इतनी संपत्ति के मालिक अकेले मुकेश अंबानी है।
इस रपट में यह भी कहा गया है कि भारत के 13.6 करोड़ लोग पिछले 15 वर्षो से लगातार कर्ज में फंसे है और 13.6 करोड़ का मतलब है कि 13.6 करोड़ परिवार यानि देश की लगभग 70 करोड़ की आबादी।
इस गरीबी बेकारी और कर्जदारी का बड़ा कारण बेरोजगारी है। तकनीक का विकास इस बेरोजगारी को आगे बढ़ाने का निमित्त बन रहा है।
अब दुनिया में ए.आई यानि (आर्टिफिसीएल इंटीलिजेस) जिसे ’’रोबोट युग’’ कहा जा सकता है का चलन बढ़ रहा है। रोबोट धीरे-धीरे इंसान के सभी कामो को अपने हाथ में ले रहा है। देश की गरीब आबादी का शत प्रतिशत ग्रामीण खेतिहर मजदूर या शहरो में काम करने वाले अकुषल मजदूर या सेवा करने वाले घरेलू मजदूर आदि शामिल है। दुनिया के तरक्की वाले देशों में जहाॅ आबादी कम और संपन्नता ज्यादा है वहाॅ रोबोट का चलन सुरु हो चुका है।
दरवाजे पर दरबानी करना हो, स्वागत करना हो, चाय पानी पिलाना हो, और धीरे-धीरे ऐसे तमाम काम रोबोट ने अपने हाथ में ले लिये है। संपन्न दुनिया के लिये रोबोट एक मानव रहित दुनिया है जिसमें सारे काम "मशीनी मानव- रोबोट" करेगा और अमीरो के खर्च को कम करेगा। उनके ऊपर लगने वाले अमानवीयता के दावों से बचायेगा और उनकी संपत्ति को बढ़ायेगा।
हो सकता है कुछ समय में युद्व जैसे विनाशकारी कामों में भी या अपराध जैसे असामाजिक कार्यो में भी रोबोट का प्रयोग सुरु हो जाये।
यह एक भयावह दुनिया होगी, जहाॅ मशीनी मानव कोई भी अपराध कर सकेगा। उसे भूख नही लगेगी उसे रोटी की आव्यकता नही होगी उसे पानी की जरुरत नही होगी, उसमें कोई संवेदना नहीे होगी, उसे वेतन की जरुरत नही होगी। एक मशीनी मानव-दानव जैसा बनकर आदमी रुपी मानव को अपने नियंत्रण में ले लेगा।
"महात्मा गांधी" ने तकनीकी विकास के खतरे को बहुत पहले भॅाप लिया था। इसलिये उन्होंने कहा था कि, "मशीन ऐसी होना चाहिये जो मानव को नियंत्रित न करे बल्कि मानव मशीन को नियंत्रित करें"।
हालांकि मशीन और तकनीक का कितना भी विकास क्यों न हो जाये वह इंसान का यथा रुप नही बन सकती। तकनीकी विकास के मानव की कमियाॅ अब सामने आना सुरु हो गई है। ये घटनायें देश और दुनिया के हम जैसे कमजोर या कम जनाधार वाले लोगो के लिये एक नकारात्मक संतोष और सुख का विषय हो सकती है। क्योंकि इन तकनीकी साम्राज्यवाद या तकनीकी मानव के साम्राज्यवाद का मुकाबला करने, उन नीतियों को बदलने की मानवीय क्षमता और जनमत का समर्थन हमारे साथ नही है या हम उसे पाने के योग्य नही बन सके है। इसलिये एक नकारात्मक संतोष हो सकता है। फिर भी कुछ घटनायें उल्लेखनीय है जो इस तकनीकी मानव को मानव विहीन तकनीक यानि केवल एक मशीन सिद्व करती है।
जापान के एक होटल में लगभग 245 रोबोट विभिन्न कामो पर लगाये थे परंतु वे रोबोट अपने काम को अंजाम देना तो दूर उसके विपरीत काम कर रहे है। जिसके परिणाम स्वरुप होटल के मालिक का धंधा चौपट होने के कगार पर आ गया तब उसने 150 रोबोट को काम से हटा दिया। हालत यह हो गई कि ये रोबोट यात्री को रात में जगाकर पूछते थे कि आपको क्या चाहिये कई यात्री जिन्हें नींद में खर्राटे की आदत थी वे रोबोट उनके खर्राटे को उनकी आवश्यकता समझ कर उन्हें जगाते थे और परिणाम स्वरुप अनेको यात्री रात-रात भर सो नही पा रहे थे।
अतः उन्होंने होटल में आना ही बंद कर दिया। कई स्थानों पर रोबोट आपस के हंसी-मजाक को समझ नही पाये और वह उसे दूसरे व्यक्ति पर हमला समझ उनकी सुरक्षा में आ गया तथा इस गलत फहमी में उसने दोस्त पर ही हमला कर दिया। होटलो में बैरा का काम करने वाले रोबोट ने कई बार चाहे गये सामान से भिन्न सामान पहुंया दिया क्योंकि वह समझ नही पाया। और अब यह स्थिति हो रही है कि इंसान रोबोट से भयभीत हो रहा है। और कही रोबोट मानव के और कही मानव रोबोट के हमले का शिकार हो रहा है। अनेक देशों में अब लोग रोबोट के साथ मारपीट कर रहे है।
स्टीफन हांकिग जो दुनिया में ब्लैक होल खोज के बडे दार्शनिक वैज्ञानिक माने जाते है, ने भी रोबोट को या आर्टिफिशीयल इंटीजिलेंस (ए.आई) को मानवता के लिये खतरा बताया है।
अमेरिका के सिलिकाॅन बेली में सेेंट फ्रांस्सिको और फिल्डेल्फिया में रोबोट के साथ मारपीट की घटनायें हुई है तथा उनकी मानव जैसी दिखने वाली गर्दन भी काट दी गई। यानि अब मानव व मशीनी-मानव एक दूसरे से भयभीत हो रहे है और परस्पर हमले की स्थिति में हैै।
(ए.आई) मशीनी मानव का यह संकट विश्व के लिये एक भयावह सभ्यता व संस्कृति संकट है।
वर्तमान पूंजीवादी मशीनीवादी तकनीकी सभ्यता के पास इसका कोई हल नही है।
इसका हल केवल गांधी की वैकल्पिक सभ्यता की कल्पना में है यानि आदमी आदमी रहे मशीन न बने। आदमी की जरुरत की पूर्ति के लिये सहायक तो मशीन हो, परंतु आदमी की निंयत्रक मशीन न हो। और इसके लिये न्यूनतम और छोटी मशीन का सिंद्वात कारगर होेगा। आने वाले दुनिया के युद्व और शायद विश्व युद्व मशीनी युद्व होगे जो मानवता को नष्ट करने वाले होगे।
इस संभावित खतरो से मानवता को यदि बचाना है तो गांधी और लोहिया के बताये हुये मार्ग की तरफ जाना होगा।
दुनिया और देश में बेरोजगारी और गरीबी के लिये भी मशीन और तकनीक कारण बन रही है। जहाॅ एक तरफ तकनीक और मशीन, शोषण और सम्पन्नता, अमीरी व गरीबी की विषमता का माध्यम है, वही दूसरी तरफ बेरोजगारी के समुद्र को फैलाने का भी कारण है।
अगर देश में 119 अरबपतियों की संपत्ति में प्रतिदिन 22 सौ करोड़ रुपया की वृद्वि हो रही है और दूसरी तरफ गरीबो की सम्पत्ति में 11 प्रतिशत की कमी हो रही है तो इसके लिये एक बड़ा कारण यह मशीन और तकनीकी है। जो एक ऐसा स्वरुप ग्रहण कर रही है जिसमें इंसान की जरुरत दिन व दिन घट रही है। सयंत्र का बटन दबाने के लिये और बंद करने के लिये मात्र एक आदमी चाहिये परंतु वह सयंत्र एक लाख लोगो के बराबर रोजगार व उत्पादन कर सकेगा। अगर इस मशीनी सभ्यता से मुक्ति नही पाई गई तो मुस्किल से कुछ हजार लोग दुनिया के सौ करोड़ लोेगो का रोजगार छीन लेगे। उनके स्थानापन्न बन जायेगे। मशीन अमीरो की संपत्ति बढ़ायेगी और तिजोरिया भरेगी। दुनिया की बड़ी आबादी को गरीबी भूखमरी, कुपोषण, अशिक्षा, और बीमारियो के विसाल समुद्र में डूबो देगी। न केवल मानवीय संस्कृति को बचाने के लिये न केवल मानवता को बचाने के लिये बल्कि श्रम और रोजगार को बचाने के भी लिये मशीन से मुक्ति तो नही बल्कि मशीन पर नियंत्रण व मशीन को सीमित व न्यूनतम करना होगा।
रघु ठाकुर
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