
विशेष: पांच विधानसभा के चुनाव: रघु ठाकुर
विधानसभा चुनावों के मायने: रघुठाकुर
हाल ही में देश की पांच विधानसभा के चुनाव सम्पन्न हो चुके है और परिणाम भी आ चुके है। लोग इन चुनावों को आगामी लोकसभा 2019 की पूर्व परीक्षा जैसा देख रहे थे और अब इनके परिणामो के आधार पर देश के आगामी लोकसभा चुनाव में जनता के मूड और जीत-हार की संभावनाओं को तलाश रहे है।
पांच राज्यो के चुनाव में से दो राज्य तेलंगाना और मिजोरम पहले ही ऐसे राज्य थे जहाॅ भाजपा मुकाबले में नहीं थी। इन दोनो राज्यो में कांग्रेस की भी बुरी पराजय हुई है तथा चन्द्रबाबू नायडू और कांग्रेस के तालमेल को तेलगाना में असफलता हाथ लगी।
तीन राज्यो छ.ग., म.प्र. और राजस्थान में पिछले 15 सालो से भाजपा सरकारें थी और पिछले कुछ समय से मीडिया के माहौल के अनुसार सपाक्स जैसी संस्थाओं का उदय होना एंव भाजपा के खिलाफ सवर्ण आक्रोश से ऐसा प्रतीत हो रहा था कि तीनों प्रदेशों में चुनाव परिणाम तत्कालीन सरकार के खिलाफ अच्छे नही आने वाले। निसंदेह तीनों राज्यो में भाजपा की हार एक बड़ा संकेत है। हाॅलाकि जैसा वातावरण बना था, उसके अनुसार सफलता तो कांग्रेस को केवल छ.ग. में ही मिली है जहाॅ अजीत जोगी के द्वारा बसपा से समझौते करने के बावजूद भी उसने 90 में से 67 सीटें जीती है। परन्तु म.प्र. में कांग्रेस, सपा, बसपा और निर्दलियों के सहयोग से ही सरकार बना पाई है। अतः इसे छ.ग. जैसी निर्णायक जीत नही माना जा सकता। जबकि राजस्थान में कांग्रेस पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला है, यद्यपि राजस्थान में भाजपा छ.ग. जैसी कमजोर साबित नही हुई है। जब मैं अपने पार्टी के पक्ष में राज्यों के विधान सभा चुनाव प्रचार से लौटकर आया था तो मैने अनेक पत्रकार मित्रो से कहा था कि इन तीनो राज्यो में कांग्रेस चुनाव जीतेगी तथा छ.ग. में कांग्रेस के भारी बहुमत की संभावना के साथ लगभग 55 सीट आने का अनुमान भी बताया था। मैं कोई ज्योतिषी या भविष्य वक्ता नही हॅू परन्तु चुनाव के पहले मतदाताओं पर हो रहे तात्कालिक प्रभाव का अध्ययन मैंने अपने चुनावी दौरे में किया था। दलों की जीत-हार मेरी राय में स्थाई महत्व की नही है और वह इसलिये कि जिन दलो की सत्ता में बदलाव हो रहा है उस बदलाव से कुछ राहत या संतोष, फौरी तौर पर लोगो को हो सकता है। कुछ राहत के कदम उठाया जाना स्वाभाविक है जो चुनावी वायदे किये गये उनमें से कुछ को पूरा करना नई सरकार की जरुरत है और इस समय तो विशेष तौर पर क्योंकि लोकसभा के चुनाव आगामी 4-5 माह के अंदर होना है। अतः दिल्ली में सरकार बनाने की आंकाक्षा पालने वालो का दायित्व है कि वे फौरी तौर पर कुछ ऐसे काम करें जिसमें आगामी लोक सभा चुनाव में उन्हें जनमत का समर्थन मिल सके।
परन्तु व्यवस्था परिवर्तन चाहने वाले दलो को इन विधानसभा चुनाव से घोर निराशा हुई है उसमें से एक हमारी लोसपा भी है।
पिछले पाॅच दशको के राजनैतिक प्रयोगो के कारण देश के मतदाताओं में एक अलग प्रकार का बदलाव आया है। 70 के दशक के पहले मतदाता एक दल के मतदाता होते थे और उस दल की विचार धारा के प्रति वफादार होते थे। याने विभिन्न विचारधारा के दलो के मतदाताओं के उतने मत उन्हें मिलते थे। मतदाता स्वतः अपने आप को समाजवादी, साम्यवादी, हिन्दु महासभा या जनसंघ के विचार का अंग मानता था तथा वह अपने प्रत्याशी को चाहे जीते या हारे अपना मत देता था परन्तु अब यह नया बदलाव आया है कि मतदाता किसी विचार धारा का अंग अपने आप को नही मानता। नेता भी दल-बदलू अवसरवादी हो गये है और मतदाता भी सत्ता परख अवसर वादी हो गया है वह जीतने वाली पार्टी के लिये या जीत के लिये वोट देना चाहता है और जब देश में जीत ही लक्ष्य और दर्शन संक्षेप बन जाये तो फिर विचार का महत्व कहाॅ बचता है।
पिछले पांच वर्षो के एक और घटनाक्रम को बारीकी से देखा जाना चाहिये।
वर्ष 2014 में जब श्री नरेन्द्र मोदी प्रधान मंत्री बने तो उन्होंने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया और लोकसभा चुनाव के बाद होने वाले विधानसभा चुनावों महाराष्ट्र, हरियाणा, उ.प्र., आदि में भाजपा जीती। परन्तु नोटबंदी और जी.एस.टी सम्बन्धित मोदी सरकार के निर्णयो से संघ के आधार वाला एक तबका सरकार के खिलाफ हुआ जिसका प्रभाव मीडिया पर भी पड़ा। संघ के लोक संघ नियंत्रित सरकार से जिस आर्थिक, सामाजिक ढाॅचे की अपेक्षा कर रहे थे वह दोनो अर्थो में निराश हुये और वे मोदी सरकार के खिलाफत के मुद्दें पर तन मन से लग गये। संघ के आधार सम्पन्न और सवर्ण मतदाताओं के इस वर्ग विद्रोह को संभाल पाना संघ के मुखियाओं को भी संभव नही हुआ और उनके दबाव में संघ ने भी अपनी निष्ठा तो नही परन्तु तत्कालीन रणनीति और बोली में बदलाव लाया। श्री मोदी के कांग्रेस मुक्त भारत लक्ष्य की घोषणा के लगभग तीन साल तक संघ उसका यश-भागी बना रहा तथा भाजपा के चुनाव की जीत को अपने संगठन की जीत बता कर सरकारो को नियंत्रित एंव उनका भरपूर दोहन करता रहा है। परन्तु जैसे ही भाजपा की सरकार के खिलाफ वातावरण तेजी से बदलना सुरु हुआ संघ ने कुछ रणनीति और कुछ लाचारी के तौर पर नये विचार रखना सुरु कर दिये। संघ संचालक डा.मोहन भागवत ने दिल्ली के त्रिदिवसीय मंथन कार्यक्रम में जो कि विज्ञान भवन में आयोजित किया गया था, में संघ की भूमिका की सफाई देते हुये अनके बातें कही परन्तु उनमें से तीन उल्लेखनीय बिन्दु निम्नानुसार है:-
1. संघ राजनैतिक संस्था नही बल्कि सामाजिक और राष्ट्रीय हितो पर काम करने वाली संस्था है। जबकि संघ भाजपा की राजनीति को नियंत्रित करती है यह संघ की भूमिका स्थाई और वास्तविक भूमिका रही है। स्व. गोलवरकर जी ने अपने एक लेख में स्पष्ठ लिखा था कि जनसंघ, संघ का बाजा है जिस प्रकार कमल की नार को बाद्ययंत्र के रुप में इस्तेमाल करते है और टूटने पर खा लेते है इसी प्रकार संघ के लिये जनसंघ है। संघ और जनसंघ के रिश्ते याने भाजपा के रिश्ते अभी भी यथावत बरकरार है।
सच्चाई तो यह है कि मार्च 1980 में भाजपा का गठन जनता पार्टी से हटकर इसलिये कराया ही गया था ताकि संघ और संघ की कमल नार याने संघ का नियंत्रण पूर्व स्थिति में रहे। हो सकता है कि, संघ के मुखियो को अपने आधार के विद्रोह का कुछ आभास होने लगा हो और आगामी सत्ता बदलने की संभावनाये तथा उसके संभावित खतरे भी उनके ध्यान में रहे हो।
2. डा.भागवत ने कहा कि भारत में रहने वाले मुसलमान भी भारतीय हिन्दु है और उन्हें कोई हटा नही सकता, इस तथ्य को स्वीकारना होगा। एक प्रकार से उन्होंने मुस्लिम मतदाताओं की अरुचि और आक्रोष को कम करने का प्रयास किया, साथ ही अपनी सांप्रदायिक छवि से मुक्त होने का उपक्रम भी किया। हांलाकि उनके इस प्रयास का कोई विषेष प्रभाव हाल के पांच राज्यो के चुनाव में नजर नही आया।
3. उन्होंने आजादी के आंदोलन में कांग्रेस पार्टी की महत्वपूर्ण भूमिका को सार्वजनिक रुप से स्वीकार किया और कहा कि संघ कांग्रेस मुक्त भारत के पक्ष में नहीं है।
इस प्रकार उन्होेंने संघ और भाजपा को फौरी तौर पर दिशा परिवर्तन के संकेत दिये हालांकि अगर पिछले सितम्बर से नवम्बर 2018 के समाचार पत्रो को देखे तो निरतंर यह समाचार आते रहे है कि बस अब संघ ने कमान संभाल ली है और भाजपा को जितायेगे। संघ और भाजपा नेताओं की संयुक्त बैंठकों के समाचार मीडिया में आते रहे है। संघ की यह रणनीति रही है कि ’’मीठा मीठा गप्प-कड़वा-कड़वा थू’’ जीते तो यश हमारा हारे तो अपयश तुम्हारा। इस मामले में संघ कांग्रेस, बसपा, सपा, और लगभग सभी दलों का नेतृत्व समान है कि जीत शीर्ष नेता की होती है और हार कार्यकर्ता की होती है। यह हमारी राजनैतिक संस्कृति का अब हिस्सा बन गया है शायद इसलिये भी कि हम हजारो साल राजतंत्र की रियाया रहे है तथा यह दुनिया की सर्वमान्य युक्ति है कि राजा कभी गलती नही करता।
संघ के एक विचारक श्री एम.जी.वैद्य ने अभी हाल में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की तारीफ करते हुये कहा है कि इन चुनावों में कांग्रेस की जीत ने उनके नेतृत्व को सिद्व कर दिया है। वैसे भी देश के मीडिया में प्रचार तेजी से चल रहा है कि इन तीन राज्यों के चुनाव परिणामों ने श्री राहुल गांधी के नेतृत्व क्षमता को प्रभावित कर दिया है और अब उनकी छवि पप्पू की नही बल्कि नेता की हो गई। याने संघ अब कांग्रेस और श्री राहुल गांधी को यह शुभकामना संदेश दे रहा है कि हम आप दोनो के खिलाफ नही है हो सकता है कि कोई अंदरुनी समझ संघ व कांग्रेस के बीच में विकसित हो, क्योंकि तीन राज्यो के चुनाव परिणाम आने के बाद कई पत्रकार वार्ता में राहुल गांधी ने स्पष्ट तौर पर कहा कि वे भाजपा मुक्त भारत नही चाहते। याने अब संघ और भाजपा तथा कांग्रेस दोनो ने एक दूसरे की अनिवार्यता को स्वीकार कर लिया है और एक प्रकार से एक दूजे के लिये होने की सार्वजनिक घोषणा कर दी है। शायद यही कारण है कि, म.प्र. के मुख्यमंत्री श्री कमलनाथ से जब उनसे कांग्रेस घोषणा पत्र में कहे गये संघ की शाखाओं को सरकारी भवनो में न लगने देने, और कर्मचारियों को उसमें न जाने देने से सम्बन्धित वादे को क्रियान्वयन करने के बारे में पूॅछा तो उन्होंने कहा कि यह विषय केन्द्र सरकार के अधीन है। यह घटनाक्रम संघ और भाजपा के अलिखित समझौते की कहानी कहते है। यह कोई पहली बार नही है बल्कि आजादी के समय से ही कांग्रेस और संघ के बीच अंदरुनी दोस्ताना व भाईचारा चल रहा है तथा जब-जब कांग्रेस को आवश्यकता पड़ी तो संघ ने कभी राष्ट्रवाद के नाम पर, कभी राष्ट्रीय एकता के नाम पर, कभी राष्ट्रीय एकता के नाम पर जनसंघ व भाजपा का खुला समर्थन किया है। 1971-1984 में इसके उदाहरण आ चुके है।
बहरहाल संघ, भाजपा और कांग्रेस की मित्रता-भाईचारा और याराना कम से कम उन लोगो को चैकाने वाली घटना नही है जो यह जानते है कि दोनो जमाते कार्पोरेट समर्थक जमाते है तथा आजादी के बाद इसका उद्गम भी वही से हुआ है और इनकी नीतियाॅ भी उन्ही के लिये है। कारपोरेट अर्थव्यवस्था और भारत की प्राचीन जाति व्यवस्था को अप्रत्यक्ष तौर पर कायम रखने के लिये ये दोनो राजनैतिक दल परस्पर पूरक है। आपातकाल के दिनो में जिन संजय गांधी को संघ और जनसंघ के लोगो ने सबसे बड़ा अपराधी बताया था उनके पांच सूची कार्यक्रम का समर्थन भी संघ के लोग करते थे और कालांतर में स्व. संजय गांधी की पत्नी श्रीमती मेनका गांधी और उनके बेटे को भाजपा में शामिल कर क्रमशः मंत्री और सांसद बनने में भाजपा या संघ को कोई परहेज नही हुआ जबकि आपातकाल के दिनो में श्रीमती मेनका गांधी के बारे में जो कहानियाॅ कही जाती थी वे अब लिखने योग्य भी नही है। म.प्र. के मुख्यमंत्री श्री कमलनाथ जी कि मैं इस गुण की तारीफ करुॅगा कि वे अपने रिश्तों को छिपाते भी नही है, बल्कि निभाते है। उन्होंने बड़े साहस के साथ स्व. संजय गांधी की तस्वीर अपने कार्यालय में लगायी है। हो सकता है कि यह श्रीमती मेनका गांधी और वरुण गांधी के भविष्य की राजनीति का संकेत हो।
इन चुनावों से और आने वाले चुनाव में भी कोई बड़े बदलाव की उम्मीद करना निराषा को अग्रिम दावत देना है। सरकार बदलेगी, चेहरे बदलगे, घोषणा पत्र के शब्द बदलगे, कुछ देवी देवता बदलेगे परन्तु कारपोरेट पूँजीवाद और सवर्णवाद के ब्रम्हा-विष्णु-महेश जस के तस पूज्यनीय रहेगे।
इन हालात में परिवर्तन लाना है तो सभी वैचारिक दलो को जिन्हें छोटा दल कहा जाता है सोचना होगा। इनके मोर्चे आम मतदाताओं में न विष्वनीय होते है न प्रभावी होते है। मतदाता अब जीत और लोभ के साथ है और जीत की संभावनाओं को विश्वनीय बनाने तथा लोभ की पूर्ति लायक बनाने के लिये वैचारिक दलो या छोटे दलो के मोर्चे कारगर नही होगे या तो उन्हें एक दल के रुप में संगठित होना होगा या फिर शनै-शनै अंत की ओर जाना होगा। इन चुनाव का देश की जनता के लिये यह संदेश साफ है कि न कुछ बदला है न कुछ बदलेगा, पहले भी धोखे खाये है और आगे भी धोखा ही होगा और वैचारिक छोटे दलो के लिये लोहिया के शब्दों में संदेश है कि सुधरो अथवा मिटो।
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