DNA विशेष: डी.एन.ए. जैसे जुमलो से राष्ट्रीय जड़ो पर चोट न करें: रघु ठाकुर
नई-दिल्ली: डी.एन.ए. जैसे जुमलो से राष्ट्रीय जड़ो पर जिस प्रकार चोट की जा रही हैै उस पर प्रतिक्रिया ब्यक्त करते हुए प्रख्यात समाजवादी चिंतक व विचारक तथा लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय संरक्षक- रघुठाकुर ने कहा कि, "डी.एन.ए. जैसे जुमलो से राष्ट्रीय जड़ो पर चोट न करें।"
श्री ठाकुर ने बताया कि, आजकल राजनीति में डी.एन.ए की चर्चा कुछ ज्यादा चल पड़ी है और राजनैतिक नेता अपने राजनैतिक लक्ष्य भेदने के लिये डी.एन.ए नामक जुमले का इस्तेमाल बहुत कर रहे है।
डी.एन.ए की चर्चा पिछले दो दशक में भारत में कुछ ज्यादा ही हुई। यद्यपि यह ज्ञान विदेशों में इससे पहले से प्रचलित था, और भारत में इसका प्रयोग देर से सुरु हो पाया।
डी.एन.ए टेस्ट के माध्यम से आनुवांशिक जानकारियाॅ, पहचान मिलान आदि सुरु हुये है। जब श्री नारायण दत्त तिवारी के कथित पुत्र ने श्री तिवारी जी को अपना जैविक पिता बताया एंव अदालत ने इसकी पुष्टि के लिये उनका डी.एन.ए टेस्ट कराया, इसके परिणाम स्वरुप श्री तिवारी जी को अपना बेटा स्वीकार करना पड़ा, तब इस डी.एन.ए टेस्ट का नाम देश के आम आदमी के दिमाग और जुबान तक पहॅुच गया तथा यह आम आदमी के लिये भी आसानी से समझने वाला जुमला हो गया।
देश के राज नेताओ ने एक दूसरे पर आरोप मढ़ने के लिये इस जुमले का प्रयोग अब तेजी से षुरु किया है।
इसकी सुरुआत प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने बिहार विधानसभा चुनाव के समय की थी जब उन्होंने उनके आज के सहयोगी और पुराने प्रतिद्वंदी श्री नीतीश कुमार के ऊपर हमला करते हुये कहा था कि उनके डी.एन.ए में ईमानदारी नही है।
श्री नीतीश कुमार और उस समय उनके सहयोगी घटक के नेता श्री लालू प्रसाद यादव ने तत्काल जुमले को झटका और मोदी एंव भाजपा पर प्रहार सुरू किया कि उन्होंने समुचे बिहार को बेईमान कहा है। मतदाता इससे प्रभावित हुये और उन्होंने मोदी व भाजपा के खिलाफ अपने मतो से आक्रोष व्यक्त किया। यद्यपि बाद में प्रधानमंत्री व भाजपा सफाई देती रही परन्तु तीर तो चल चुका था, और लोगो को घायल कर चुका था।
हांलाकि राजनीति का यह भी एक कुरुप चेहरा है कि अब श्री नरेन्द्र मोदी और श्री नीतीश कुमार का राजनैतिक डी.एन.ए एक हो गया।
कुछ लोगो ने भाजपा और संघ के 1942 के गाॅधी के आंदोलन के समय की भूमिका पर ऊॅगली उठाते हुये डी.एन.ए का इस्तेमाल किया और कहा कि उनके डी.एन.ए में गद्दारी है।
इसके प्रति उत्तर में भाजपा के लोगो ने उसी डी.एन.ए का इस्तेमाल कम्युनिस्ट के खिलाफ किया कि उनके भी डी.एन.ए में राष्ट्रभक्ति नही है।
कुल मिलाकर आजकल डी.एन.ए एक आम फैशन जैसा बन गया है जिसे आसानी से किसी के भी खिलाफ प्रयोग किया जा सकता है।
परन्तु अब भाजपा ने एक कदम और आगे बढ़कर यह कहना शुरु किया है कि भाजपा के डी.एन.ए में राष्ट्रवाद है याने अब डी.एन.ए के जुमले का इस्तेमाल किसी के विरोध के बजाय अपने पक्ष में तर्क के रुप में शुरु हो गया है। जब राष्ट्रवाद को लेकर डी.एन.ए का जुमला पक्ष के लिये इस्तेमाल किया जाता है तब इसके कई प्रकार के अर्थ निकाले जा सकते है और राष्ट्रवाद क्या है इस पर हभी सार्थक या संकीर्ण बहस हो सकती है।
दरअसल राष्ट्रवाद की परिभाषा के संबध में अलग-अलग प्रकार के दृष्टिकोण है और अपनी अपनी व्याख्या है।
साम्यवादी मित्रो के लिये राष्ट्रवाद देश के भीतर आर्थिक षोषण से मुक्ति परन्तु राष्ट्रीय सीमाओं की सुरक्षा नही है, इसलिये उन्होंने 1962 में चीनी हमले का विरोध नही किया बल्कि अन्तर राष्ट्रीय साम्यवाद की लाइन पर चल कर चीन के हक में खड़े हुये।
चूंकि उस समय सी.पी.एम का आदर्श चीन था और बहुत हद तक अभी भी है, इसलिये उन्होंने चीन के विरोध में हिस्सेदारी नही की।
1960 के दशक का दौर वह दौर था जब बंगाल के मार्क्सवादी मित्र अवर चैयरमेन कामरेड बाबा के नारे लगाते थे और एक प्रकार से माओ के नेतृत्व इस सीमा तक स्वीकार करते थे कि वे उसे अपने देश का चेयरमेन मानने को तैयार थे।
हाॅलाकि अब काफी बदलाव आया है और अब तो स्वतः चीन में भी माओ का नाम केवल दिखाने के लिये यदा कदा लेते है।
चीन अपनी आर्थिक व्यवस्था में मार्क्सवाद माओवाद दोनो छोड़ चुका है तथा निश्चित रुप से नव पूंजीवाद का प्रवक्ता बन गया है।
1942 में भी कम्युनिस्ट मित्रो के बड़े हिस्से ने और तत्कालीन सीपीआई ने भारत के आजादी आंदोलन और गाॅधी दोनों का विरोध किया था एंव मित्र राष्ट्रो के समर्थन के नाम पर अंग्रेजो का साथ दिया था।
यद्यपि ई.एम.एन नंबूदरीपाद, राजेश्वर राव जैसे कुछ कम्युनिस्टों ने जो उस समय कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य थे ने आजादी के आंदोलन में हिस्सेदारी की थी।
इसी प्रकार स्व.हेडगेवार जैसे कुछ लोगो ने भी व्यवस्था के तौर पर महात्मा गाॅधी के आंदोलन में भाग लिया था, परन्तु राष्ट्रीय स्ंवय सेवक संघ ने संस्था के तौर पर समूह भागीदारी नही की थी।
मैं इन दोनो जमातो की यह रणनीतिक भूल मानता हॅू, परन्तु इसे समुचे समूह के डी.एन.ए. के साथ जोड़ने की गलती नही कर सकता।
भाजपा का राष्ट्रवाद भी अब कम से कम देश में विश्वसनीयता खो रहा है। नारे के तौर पर वे वंदे मातरम या भारत माता की जय का नारा तो लगाते है परन्तु उस भारत माता के खण्डित टुकड़ो को जोड़ना तो दूर अंग भंग भारत माता के सम्मान और गौरव उस पर होने वाले हमलो से भी रक्षा नही कर पाते।
केन्द्र में वर्ष 2000 से 2004 तक भाजपा की सरकार थी और उसी समय संसद पर आंतकवादी हमला हुआ। कन्धार विमान अपहरण काण्ड हुआ और भाजपा सरकार का राष्ट्रवाद आर-पार जैसे जुमलो में सिमट कर रह गया।
अभी 2014 के बाद केन्द्र में बहुमत की भाजपा सरकार बनने के बाद भी आये दिन भारत को पाक आंतकवादियो से चुनौतिया मिलती रही है। हमारे सैनिको के सिर काटकर ले जाने की घटनाये घटी है और अभी हाल ही में श्री नरेन्द्र सिंह नामक जवान (हरियाणा का निवासी ) को पाक सैनिको ने अगवा कर न केवल उसकी हत्या की बल्कि उसके शरीर के साथ क्रूरता और पशुता पूर्ण व्यवहार किया।
देश के गृह मंत्री जो लगातार जुमला फैकते रहे थे कि हमने सेना से कह दिया है कि हम पहली गोली नही चलायेगे परन्तु सुरु होने पर गिनती नही लगाये, पर अब आश्चर्यजनक रुप से मौन है।
प्रधानमंत्री श्री मोदी जी जो 2014 चुनाव अभियान में अपने सीने को 56 इंच का बताकर भारत के मतदाताओ के मन को शक्तिशाली भारत बनाने के लिये गुद गुदाते थे तथा यह बताने का प्रयास करते थे कि अगर वे सरकार में आ जायगे तो पाकिस्तान को किसी भी हमलावर देश जैसा प्रति उत्तर देगें, पर अब मौनी बाबा बनकर बैठे है।
पिछले 4 वर्षो की राष्ट्रीय सुरक्षा और आतंकवाद से सुरक्षा की विफलताओं को देखकर ऐसा लगता है कि भाजपा का राष्ट्रवाद केवल विचारात्मक और मतदाताओं को गुमराह कर सत्ता हथियाने वाला सत्ता परख राष्ट्रवाद है।
आजकल राष्ट्रवाद को कुछ प्रगतिषील बुद्विजीवियो ने एक नये ढंग से व्याख्यायित करना शुरू किया है- संकीर्ण राष्ट्रवाद और उदार राष्ट्रवाद।
दरअसल "राष्ट्रवाद" राष्ट्रवाद है और उसका अर्थ इतना ही है कि अपने देश की सीमाओं और राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति चिंतित और सावधान होना। राष्ट्रवाद न हमलावार होता है न हमला सहने वाला हमलावार साम्राज्यवाद होता है, बल्कि हमला सहने वाला कायर और कमजोर होता है।
राष्ट्रवाद का मतलब है कि अपनी वर्तमान राजनैतिक सीमाओं की सुरक्षा के साथ साथ उसमें रहने वाले इंसान के बीच सभी प्रकार की बराबरी, प्रकृति, पर्यावरण का सरंक्षण और समस्याओं व तनाव से मुक्ति, अपराध व शोषण से मुक्त भारत।
राष्ट्रवाद कभी संकीर्ण नही हो सकता और राष्ट्रवाद अंतर्राष्ट्रवाद के खिलाफ भी नही है।
स्व.डा.लोहिया अपने आप को विश्व नागरिक मानते थे और चाहते थे कि दुनिया में एक व्यक्ति एक मत के आधार पर संसद हो।
परन्तु जब तक यह लक्ष्य हासिल नही होता तब तक अपनी देश की सीमाओं और भूगोल को सुरक्षित रखना भी राष्ट्रवाद का दायित्व है।
अगर राष्ट्र के भीतर नागरिको में शोषण के रिस्ते है, विषमतायें है, तो राष्ट्र के होने और राष्ट्रवाद का अर्थ क्या?
राष्ट्रवाद की मूल शर्त है कि ,व्यक्ति व्यक्ति के बीच आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, लैगिंक समानता।
हर व्यक्ति का उत्तरदायित्व आजादी और शासन के द्वारा समता के व्यवहार के साथ-साथ आजादी की रक्षा।
अगर देश में लाखो किसान आत्महत्यायें करने को लाचार हो, हजारो बच्चे डेंगू, मलेरिया, मस्तिष्क ज्वर से मरने को लाचार हो, करोड़ो नौजवान बेरोजगार बनने को लाचार हो, बहिन-बेटियों के लिये सड़के और घर असुरक्षित हो, समाज में और देश में सुखो व दुखो में सह भागिता न हो, तो फिर कैसा राष्ट्रवाद?
राष्ट्र का निर्माण ही उदार मन, बराबरी के दर्शन और सामूहिकता के आधार पर होता है। इस अर्थ में राष्ट्र केवल राजनैतिक और भौगोलिक ईकाई नही बल्कि एक मानवीय ईकाई है और मानवीय ईकाई कट्टर व संकीर्ण नही हो सकती।
राष्ट्रवाद तो देश के सभी नागरिको के डी.एन.ए में होता है और होना भी चाहिये। वैचारिक रुप से, मानसिक रुप से, भौगोलिक रुप से, राजनैतिक रुप से, ऐतिहासिक रुप से और जैविक रुप से। हम सब भारतवासियो का डी.एन.ए समान है।
यह संभव है कि, कुछ लोग विषाणुओं से ग्रस्त हो और बीमार हो, परन्तु यह जैविक फर्क नही बल्कि बाह्नय कीटाणुओ का फर्क है। उसे समूचे राष्ट्र पर या किसी एक समूह पर लागू नही किया जा सकता।
एक या चंद व्यक्ति की बीमारी को समूचे देश की बीमारी कहना अनुचित होगा।
अच्छा होगा कि राजनैतिक लोग मुद्दों और कार्यक्रम पर चर्चा व बहस करें। घात प्रतिघात करें परन्तु राष्ट्र की मूल जड़ों को नष्ट न करे। अगर भाजपा के राष्ट्रीयता की थ्योरी को मान लिया जाये कि भाजपा के डी.एन.ए में ही राष्ट्रवाद है तो इसका मतलब हुआ कि देश की बमुश्किल तीन करोड आबादी के डी.एन.ए में ही राष्ट्रवाद है, क्योकि भाजपा की सदस्यो की संख्या तीन करोड़ बताई जाती है।
इसका अप्रत्यक्ष अर्थ यह भी हुआ कि देश के 125 करोड़ की आबादी में राष्ट्रवाद नही है और अगर यह सच हो जाए तो फिर राष्ट्रवाद का बचना संभव नही है। कहीं ऐसा तो नही है कि श्री अमित शाह किसी जाति समूह के नाम से ही राष्ट्रवाद के डी.एन.ए की खोज कर रहे हो।
मैं सभी राजनैतिक दलो व राजनेताओ से अपेक्षा करुॅगा कि वे राजनैतिक लड़ाई राजनैतिक विचारो पर लड़े परन्तु अपने देश की जड़ो पर ही प्रहार न करें।
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