लहू बोलता भी है: आज़ाद ए हिन्द के एक और मुस्लिम किरदार- हाजी अब्दुल्लाह हारून सेठ
आईये, देखते हैं
"आज़ाद ए हिन्द के एक और मुस्लिम किरदार- हाजी अब्दुल्लाह हारून सेठ" को.......
हाजी अब्दुल्लाह हारुन सेठ की पैदाइश सन् 1872 में कराची में हुई। आपके वालिद का नाम मियां हारून और वालिदा का नाम हनीफ़ा बेगम था। अभी आपके पढ़ने-लिखने और खेलने के दिन थे कि सन् 1886 में अचानक आपके वालिद का इंतक़ाल हो गया। कुल 14 साल की उम्र में आपको पढ़ाई के साथ-साथ घर और बिजनेस की भी ज़िम्मेदारी संभालनी पड़ी। हिम्मत और मेहनत से आपने पढ़ाई के साथ-साथ कारोबार शुरू किया, जो कि बहुत जल्द कामयाब हुआ।
आपके कारोबार की कामयाबी इसी बात से ज़ाहिर होती है कि आपको सुगर किंग के नाम से जाना जाने लगा। उन दिनों विदेशों में कारोबार करनेवाले सेठ साहब पहले हिन्दुस्तानी थे। उन्हें इस काम में अवार्ड भी मिला। कारोबार से मज़बूत होने के बाद आपने जंगे-आज़ादी की मुहिम और समाजी कामों में दिल खोलकर मदद करना शुरू किया और खुद भी समाजी व कांग्रेस के प्रोग्रामों मे शिरकत करना शुरू कर दिया।
सन् 1913 में आप कराची म्युनिस्पल बोर्ड के मेम्बर चुने गये। उन्हीं दिनों अलग सिंध सूबे की मांग को लेकर सेठ साहब ने आंदोलन शुरू किया। इस आंदोलन में दूसरी सियासी पार्टियों का भी साथ मिला। यह मूवमेंट जल्द ही नेशनल मूवमेंट की तरह फैल गया। सन् 1917 में इण्डियन नेशनल कांग्रेस के मेम्बर होकर आप पूरी तरह आंदोलन में लग गये। आपने ख़िलाफ़त मूवमेंट और नॉन कोआपरेटिव मूवमेंट में भी बहुत अहम किरदार निभाया। इन्हीं आंदोलनों में आप जेल भी गये। आप सिंध सूबे की ख़िलाफ़त कमेटी के चेयरमैन बनाये गये और सन् 1919 में खुद अपने खर्च से सिंध सूबे का ख़िलाफ़त कांफ्रेंस कराया, जो कि बहुत कामयाब रहा।
आप सन् 1924 में बाम्बे लेजिसलेटिव कौंसिल के मेम्बर चुने गये। अलग सिंध प्रांत के लिए किये आंदोलन की मेहनत सफ़ल हुई और सिंध प्रांत सन् 1932 में बम्बई प्रेसिडेंसी से अलग होकर सूबा बना। जनाब अब्दुल्लाह हारून सन् 1930 और 1934 में सिंध से दो बार सेन्ट्रल लेजिसलेटिव एसेम्बली के लिए चुने गये। उन्होंने अल वाहिद के नाम से एक मैग़ज़ीन निकाली, जिसके ज़रिये जंगे-आज़ादी के आंदोलनों का प्रचार और ब्रिटिश हुकूमत की ज़ुल्मो-ज़्यादती की खबरें अवाम तक पहुंचायीं। आपने हिन्दू-मुस्लिम इत्तहाद के लिए बहुत कोशिशें कीं और कामयाब भी रहे। आपने अपनी पूंजी से एक गल्र्स स्कूल भी अपनी मां की याद में खोला। इसके अलावा आपने टेक्निकल इंस्टीटयूट और स्टूडेंट हॉस्टल बनवाकर तालीम के मैदान में हिन्दुस्तानियों को ख़ुदमुख़्तार बनाने का काम अंजाम दिया।
आपका इंतकाल 27 अप्रैल सन् 1942 को हुआ।
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