जनरल बख़्त खान, जंग -आज़ादी -ए - हिन्द के एक और मुस्लिम किरदार...
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आईये, जंग -आज़ादी -ए - हिन्द के एक और मुस्लिम किरदार- जनरल बख़्त खान को जानते हैं.
जनरल बख़्त खान
जनरल बख़्त खान:-
बख़्त खान रूहेला खानदान से ताल्लुक़ रखते थे। आपके वालिद अब्दुल्लाह खान मशहूर रूहेला मुजाहिद हाफ़िज़-उल-मुल्क हाफ़िज़ रहमत खान के पोते थे। रहमत खान की शहादत के बाद उनके ख़ानदान की सब शानो-शौक़त ख़त्म हो गयी और ग़रीबी के आलम में उन लोगों ने लखनऊ का रुख़ किया, जहां आपके वालिद अब्दुल्ला खान को नौकरी मिल गयी। वहीं पर आपकी शादी शहाने-अवध घराने में हुई। जिनसे बख़्त खान पैदा हुए। बाद में शाहाने-अवध ने आपके वालिद को सुल्तानपुर की जागीर सौंप दी।
आपकी परवरिश बचपन से ही एक सिपाही के तौर पर हुई और बहुत जल्द आपने अपने फन मंे खास मुक़ाम बना लिया और कम उम्र में ही अंग्रेज़ी फ़ौज में सूबेदारी के आला ओहदे पर फायज़ हो गये। आपके फन की बदौलत अंग्रेज़ आपको बड़ी अहमियत देते थे। जब अफ़गानिस्तान की जंग हुई तो जनरल सील के साथ तोपख़ाने के अफ़सर की हैसियत से आप वहां गये। तोपखाने के मैदानी बटालियन के आप सबसे बड़े देसी अफ़सर थे। यह बटालियन तब काफी मशहूर थी। जैसे ही सन् 1857 का हंगामा शुरू हुआ, इस्लाम के इस जनरल ने अंग्रेज़ों की नौकरी से ख़ुद को अलग कर लिया और बरेली आकर अपने ख़ानदान के एक सरबराह नवाब खान बहादुर खान की खि़दमत में हाज़िर हुए। जंगे-आज़ादी की शुरुआत वैसे तो जनवरी सन् 1857 मंे हो चुकी थी, जब अंग्रेज़ों के ज़्ाुल्म से तंग आकर लखनऊ के मुसलमानांे ने ;जो सुल्ताने-आज़म के साथी थेद्ध रानीगंज के मुक़ाम पर उस अंग्रेज़ का मकान जला दिया ;जो बेगुनाह लोगों को बहुत तंग करता था और उनकी बहू-बेटियों से बदतामिज़ी करता थाद्ध इस मकान के साथ एक तारघर भी था, जो जला दिया गया। इस सिलसिले मंे अंग्रेज़ों ने मंगल पाण्डे को गिरफ्तार करके उनके ख़िलाफ़ बग़ावत का मुक़दमा चलाकर आख़िरकार उन्हें 8 अप्रैल सन् 1857 को फांसी दे दी।
10 मई सन् 1857 को मेरठ छावनी में अंग्रेज़ कर्नल ने 85 सैनिकों को गाय और सूअर की चर्बी लगी हुई कारतूस काटने का हुक़्म दिया। जिसकी मुख़ालिफ़त करने पर उनको 10-10 साल सज़ा का हुक़्म सुनाया गया और हथकड़ियां डाली गयी। इसी ज़्ाुल्म के नतीज़तन 10 मई सन् 1857 को जो जंगे-आज़ादी की शुरुआत हुई, उसे अंग्रेज़ सन् 1857 का ग़दर कहते हैं। जिसने अंग्रेज़ी हुकूमत को हिलाकर रख दिया था। यही नहीं, उस वक़्त के बहुत-से मुस्लिम उलमाओं ने इस जद्दोजहद को जेहाद की तरह लिया और हज़ारों की तादात में मौलवी व मौलाना इस जद्दोजहदे-आज़ादी के लिए अंग्रेज़ों की सूली पर चढ़ गये। इसी दौरान जनरल बख़्त खान अपनी कारगुज़ारी दिखाने दिल्ली पहुंचे। आपने काफी लश्कर और लाखों रुपयों के साथ दिल्ली का सफ़र किया और 1 जुलाई सन् 1858 को जमुना के किनारे अपना डेरा डाला। यह खबर जब बहादुरशाह ज़फ़र को मिली तो उन्होंने नवाब अहमद कुली खान को आपके इस्तेक़बाल के लिए भेजा। 13 जुलाई को जनरल बख़्त अपनी पूरी फौज के साथ बहादुरशाह के जंगी काफ़िले में शामिल हुए और जंग का हिस्सा बनकर अंग्रेज़ों के छक्के छुड़ाते हुए शहीद हो गये।
(साभार: शहनवाल क़ादरी)
सम्पादक- स्वतंत्र भारत न्यूज़
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