आईये, जंग- ए- आज़ादी- ए- हिन्द के एक और मुस्लिम किरदार- मौलवी अहमदुल्लाह को जानते हैं ......
"लहू बोलता भी है'
ज़रा याद उन्हें भी कर लो, जो लौट के घर न आये....
जंग- ए- आज़ादी- ए- हिन्द के एक और मुस्लिम किरदार- मौलवी अहमदुल्लाह:-
मौलवी अहमदुल्लाह की पैदाइश अवध के एक तालुक़ेदार घराने में हुई थी। आपकी शुरुआती तालीम मदरसे में हुई और इस्लामी तालीम मुकम्मल होने के बाद आपने दुनियावी तालीम हासिल की। आप बचपन से ही बहुत ज़हीन थे। घर का माहौल दीनी व क़ौम-परस्ती का था, सो शुरू से ही आपने मुल्क की आजादी की बातों में बहुत दिलचस्पी ली और जवान होते-होते आप क़ौमी तहरीकों में पूरी तरह से लग गये। अंग्रेज़ों के सामने अवध की हार से बेचैन होकर आपने अपनी पूरी ज़िन्दगी मुल्क को गु़लामी से निजात दिलाने में लगाने की क़सम खायी। लोगों में मज़हबी तबलीग़ के साथ-साथ आप उन्हें बर्तानिया हुकूमत और उसके ज़ुल्म के ख़िलाफ़ एकजुट होने के लिए आमादा करते थे। सन् 1856 में जब आप लखनऊ पहुंचे तब पुलिस ने आपकी तहरीके-आज़ादी पर रोक लगा दी उसके बावजूद जब आपने इसे बंद नहीं किया तो अंग्रेज़ी सरकार ने आपको बंदी बनाकर फैज़ाबाद जेल में बंद कर दिया। 8 जून सन् 1857 को सूबेदार दिलीप सिंह की क़यादत में बंगाल के बाद फैज़ाबाद जेल पर हमला करके सारे मुजाहेदीन के साथ आपको भी छुड़ा लिया गया। जेल से रिहा होने के बाद आपने अपने बिख़रे साथियों को इकट्ठा किया और अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ नयी जंग की तैयारी करने लगे। 8 जून को अंग्रेज़ों और मुजाहेदीन के बीच सीधा मुक़ाबला हुआ, जिसमें अंग्रेज़ हार गये और फैज़ाबाद को आज़ाद घोषित कर दिया गया।
पहली जंगे-आज़ादी 1857 में फैज़ाबाद को एक साल के लिए आज़ाद करानेवाले मौलवी अहमदुल्लाह को याद किये बिना जंगे-आज़ादी की कहानी पूरी नहीं हो सकती है। ब्रिटिश हुकूमत के बारे में कहा जाता है कि 18वीं शताब्दी में उनके राज के दौरान सरकार का सूरज कभी नहीं डूबता था, लेकिन शाह साहब ने फैज़ाबाद को अंग्रेज़ों से आज़ाद करके उनके सूरज को एक साल के लिए कै़द कर लिया।
बेगम हज़रत महल ने आपकी हिम्मत और बहादुरी से असरअंदाज होकर आपको अपनी फौज का कमाण्डर बनाना चाहा, लेकिन आप उसके लिए राज़ी नहीं हुए पर अंग्रेज़ सिपाहियों को मुल्के-बदर करने के लिए बेगम हज़रत महल के भरपूर मदद का भरोसा दिलाया। फिर मौलाना चिनहट, रेजीडेन्सी, दिलकुशा, कैसरबाग, सिकन्दरबाग़, आलमबाग़ सहित सभी लड़ाइयों में शामिल हुए। मार्च सन् 1857 में लखनऊ पर अंग्रेज़ों के मुक़म्मल कब्जे़ के बाद भी मौलाना अपनी लड़ाई लड़ते रहे। आप लखनऊ से शाहजहांपुर गये और क़स्बा मोहम्मदी पर क़ाबिज़ होकर जंगी साज़ो-सामान का बन्दोबस्त कर नये हमले की तैयारी करने लगे। यहीं नाना साहब, अज़ीमुल्ला खान और जनरल बख़्त खान भी आपसे मिले और आपस में सलाह व मशवरा के बाद मोहम्मदी से अंग्रेज़ी फौज़ को खदेड़कर वहां इस्लामी हुकूमत का क़याम अमल में आया आपको इस्लामी हुकूमत का अमीर चुना गया, जबकि जनरल बख़्त खान कमाण्डर बनाये गये और नाना साहब को दीवान बनाया गया।
अवध से निकलने के बाद वतन के सरफ़रोश जांबाजों की रूहेलखण्ड में अंग्रेज़ों से आखि़री जंग हुई। आस-पास में जब अंग्रेज़ी फ़ौज ने क़ब्ज़ा कर लिया तो अहमदुल्लाह शाह ने हिक़मते-अमली के तहत शहर ख़ाली कर दिया और दो-तीन दिन बाद अचानक हमला कर दिया। आपने शहर की एक मुमताज़ इमारत में आग लगा दी, जो अब जली कोठी के नाम से जानी जाती है। 13 से 19 मई सन् 1858 तक आपका आक्रमण जारी रहाऋ अंग्रेज हैरान व परेशान रहे।
दौराने-जंग 1857 में बेगम हज़रत महल लखनऊ की चैलखी कोठी में ही मुकीम रहीं। अंग्रेज़ी फौज ने चैलखी कोठी को चारों तरफ से घेर लिया और भागने के सारे रास्ते बन्द कर दिये। जब मौलवी साहब को मालूम हुआ तो आप अपने कुछ सिपाहियों को लेकर अंग्रेज़ों पर अचानक हमलावर हुए और घेराबन्दी तोड़कर ज़बरदस्त ख़ून-ख़राबे के बाद बेगम हज़रत महल और अन्य लोगो को तलवार के सहारे से निकाल ले गये और उन सभी को मूसा बाग़ जैसी महफूज़ जगह पर पहुंचा दिया। यह वही मूसा बाग़ है, जहां बेगम हज़रत महल ने लखनऊ की आखि़री जंग में अपनी बहादुरी का लोहा मनवाया था।
मौलवी साहब की बहादुरी का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि विनायक दामोदर सावरकर की नज़र में भी आपका क़द कुछ कम ऊंचा नहीं था। अपनी पुस्तक ‘द इण्डियन वार आॅफ इंडिपेंडेंस 1857’ में वे लिखते हैं कि इस बहादुर मुसलमान का जीवन दिखाता है कि इस्लामी सिद्धान्त में तर्कशील आस्था किसी भी रूप में भारतीय मिट्टी के प्रति ज़बरदस्त प्यार की विरोधी नहीं है और इस्लाम धर्म के प्रति सच्ची आस्था रखनेवाला अपने मातृ-देश के लिए मर मिटने में गर्व महसूस करेगा। जब अंग्रेज़ सरकार आपको पकड़ने में कामयाब न हो सकी तब उसने दूसरे तरीक़े का इस्तेमाल किया जिसके तहत उस वक़्त के गवर्नर-जनरल लार्ड कैनिंग ने एक फरमान जारी किया जो इस तरह था-
सूचित किया जाता है कि जो भी व्यक्ति विद्रोही मौलवी अहमदुल्लाह शाह, जिन्हें आम रूप से मौलवी कहा जाता है, को जिं़दा पकड़कर ब्रिटिश मिलिट्री पोस्ट या कैंप में लायेगा उसे 50,000 रुपये का इनाम दिया जायेगा। आगे यह भी सूचित किया जाता है कि इसके अलावा लानेवाले विद्रोही को अभयदान दिया जायेगा, बशर्ते कि उसका नाम सरकारी एलान नम्बर 476 में न हों।
मौलवी साहब अंग्रेज़ों के लिए कितने ख़तरनाक थे, इसका अन्दाज़ा आपको ज़िन्दा पकड़कर लाने के लिए तय की गयी रक़म से ही लगाया जा सकता है गौरतलब है कि पहली जंगे-आज़ादी के वक़्त 50,000 रुपये की रक़म निहायत ही आसमानी रक़म थी। गवर्नर-जनरल लार्ड कैनिंग का यह फ़रमान (जिसका नम्बर 580 था) 12 अप्रैल सन् 1858 को गवर्नर-जनरल के इलाहाबाद-कैंप से जारी किया गया था।
इसे हमारी बदनसीबी कहिये कि मौलवी साहब की जान लेनेवाला कोई ब्रिटिश सैनिक या अफ़सर नहीं, बल्कि फैज़ाबाद का ही एक गद्दार ज़मींदार था। 5 जून सन् 1858 को मौलवी साहब को पवाई के राजा जगन्नाथ सिंह ने मदद की उम्मीद से पवाई बुलाया। आप जब पवाई के राजा के यहां पहुंचे तो वह अपने भाई के साथ क़िले की दीवार पर मौजूद था लेकिन उन लोगों ने जब दरवाजा नहीं खोला तो आपने महावत को दरवाज़ा तोड़ने का हुक़्म दिया इसी बीच राजा के भाई बलदेव सिंह ने छुपकर आपको धोखे से गोली मारकर आपका सिर तलवार से अलग कर दिया और उसे शाहजहांपुर के अंग्रेज़ कलक्टर के पास ले गया ताकि अंग्रेज़ों से इनामो-इकराम हासिल किया जाये। उसके बाद मौलाना के जिस्म के साथ अंग्रेज़ों ने जो बेहुरमती की उसका अन्दाज़ा भी नहीं लगाया जा सकता था अंग्रेज़ों ने आपके जिस्म की नुमाइश पूरे शहर में की और बाद में टुकड़े-टुकड़े करके उसमें आग लगा दी। मौलाना साहब के सिर की तदफ़ीन जहांगंज की एक छोटी-सी मस्जिद के क़रीब अमल में आयी।
(साभारशाहनवाज़ अहमद क़ादरी)
संपादक- स्वतंत्र भारत न्यूज़
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