सैय्यद अताउल्लाह शाह बुखारी - आईये, जंग- ए- आज़ादी- ए- हिन्द के एक और मुस्लिम किरदार को.....
"लहू बोलता भी है'
ज़रा याद उन्हें भी कर लो, जो लौट के घर न आये....
सैय्यद अताउल्लाह शाह बुखारी:
सैय्यद अताउल्लाह शाह बुखारी 23 सितम्बर सन् 1892 को पटना में पैदा हुए। अपनी शुरुआती मज़हबी तालीम आपने गुजरात में पूरी की और 10 साल की उम्र में अपने वालिद हाफ़िज़ सैय्यद ज़ियाउद्दीन से क़ुरान का हाफ़िज़ा किया। 22 साल की उम्र में आप अमृतसर चले गये और वहां से आला तालीम के लिए दारुल-उलूम ;देवबन्दद्ध गये। आप अंग्रेज़ी पहनावे और अंग्रेज़ी भाषा के ख़िलाफ़ थे। आपने 40 साल की उम्र तक अमृतसर की एक मस्ज़िद में दुनियावी तालीम के साथ-साथ क़ुरान भी सिखाया। आप समाजवादी और कम्युनिस्ट ख़्याल के लोगों से अक्सर मिला करते थे और अपने हर खुतबे में अंग्रेज़ों और उनके ज़ुल्म के खि़लाफ बोलते थे। वैसे तो आपका मज़हबी और सियासी कैरियर सन् 1916 में ही शुरू हो गया था आप अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ अवाम को बेदार करने में लगे थे। आप अरबी, फारसी, उर्दू, पंजाबी और मुल्तानी जुबानों में अंग्रेज़ों के खि़लाफ़ जज़्बाती व जोशीली तकरीर देने के लिए ख़ासे मशहूर हुए। आप अपनी हर तक़रीर में गरीब और पिछड़ों की परेशानियों का इज़हार करते और यह वायदा देते कि अंग्रेज़ों की काली हुकूमत के साथ ही उनके दुःख भी ख़त्म हो पायेंगे।
जालियांवाला बाग़ के हादसे ने आपको हिलाकर रख दिया। यह हादसा आपको इतना मुतास्सिर कर गया कि आपने पूरे मुल्क में सफ़र करके अंग्रेज़ों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया और लोगों को अंग्रेज़ों की काली ज़ालिमाना सरकार के खिलाफ इकट्ठा किया। सन् 1919 में अमृतसर में हुए ख़िलाफ़त कांफ्रेंस में आपने ज़बरदस्त तक़रीर की और फिर सन् 1921 में कलकत्ता में जाकर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ सीधा मोर्चा खोल दिया। इन तक़रीरों ने आपको चारों ओर मशहूर कर दिया, चुनांचे आप एक बड़े नेता माने जाने लगे।
आपकी तक़रीरों के लिए ब्रिटिश सरकार ने 27 मार्च सन् 1921 को आपको गिरफ़्तार कर लिया। आप महात्मा गांधी के बग़ैर ख़ून-ख़राबे की जंग के तरीक़े से आजादी हासिल करने के हामी थे। आपने अपने अन्दर एक दावत देनेवाला मुसलमान और एक अवामी नेता को बहुत अच्छी तरह संजोये रखा और सख़्ती के साथ क़ुरान पर अमल करते रहे। बहुत जल्द ही आप अंग्रेज़ों की आंखों में इतना चुभने लगे कि हुकूमत ने उनके बारे में आॅफिशियली यह तक कह डाला कि अताउल्ला एक ऐसा आदमी है जो जितना जेल में बन्द रहे उतना ही हमारे लिए अच्छा है। उसने अपनी ज़िन्दगी का बड़ा हिस्सा लोगों को जगाने में लगा दिया है। वह एक ज़बरदस्त स्पीकर है जो अवाम पर सीधे असर डालता है।
मौलाना साहब की तकरीरों का असर इतना था कि जिन आगा शोरिश कश्मीरी ने बाद में आपकी ज़िन्दगी पर किताबें लिखी, वह खुद भी तब आपके गहरे दोस्त होकर समाज सुधार के काम में लग गये थे। सन् 1941 में एक बार जब आपको गिरफ़्तार किया गया तो जेलर ने आपको बुलाया और एक माफ़ीनामे पर दस्तख़त करने को कहा जिस पर लिखा था अगर सरकार मुझे इस बार रिहा कर दें तो मैं वायदा करता हूं कि में फिर कभी ऐसा कुछ नहीं करूंगा जिससे सरकार को कोई एतराज़ हो। हज़रत साहब ने वह माफ़ीनामा उठाया, फाड़ा और पैरों से रौंदकर उस पर तीन बार थूका और जेलर को आंखें दिखाते हुए वापस चले गये। जब उनकी रिहाई में कुछ दिन ही बाक़ी थे तो जेलर ने आपको फिर बुलाया और वही दस्तख़त करने को कहा तो हजरत ने कहा, इस पर अंग्रेजी में कुछ लिखो। जेलर बोला, क्या? तो हजरत ने कहा, जब तक मैं ज़िन्दा हूं तुम्हारी जड़ें काटता रहूंगा।
तहरीके-आजादी में आप 8 बार गिरफ्तार हुए और तकरीबन 10 साल बतौर सजा जेल में बितायी। हजरत साहब अपनी तक़रीरों के लिए तो जाने ही जाते थे, साथ ही आप एक अच्छे शायर भी थे। आपकी ज़्यादातर गज़ल व गीत फारसी जुबान में लिखी गयी हैं, जिन्हें आपके बड़े बेटे सैय्यद अबुज़र बुख़ारी ने सन् 1956 में सावती उल इल्हाम नाम की किताब में संजोकर रख ली। हजरत साहब ने 21 अगस्त सन् 1961 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया। तक़रीबन दो लाख लोगों ने मुल्तान में उनकी नमाज़े-जनाज़ा में शिरकत की। अल्लामा इक़बाल आपके बारे में फ़रमाया करते थे कि सैय्यद अताउल्लाह शाह बुखारी इस्लाम की चलती-फिरती तलवार हैं।
(साभार: शाहनवाज़ अहमद क़ादरी)