आईये, जंग- ए- आज़ादी- ए- हिन्द के एक और मुस्लिम किरदार - मौलवी लियाक़त अली को जानते हैं...
"लहू बोलता भी है'
ज़रा याद उन्हें भी कर लो, जो लौट के घर न आये....
मौलवी लियाक़त अली
सन् 1857 में जब हिन्दुस्तानियों ने अंग्रेज़़ों के खिलाफ जंगे-आज़ादी का बिगुल बजाया और अवध में उसे जोर-शोर से आगे बढ़ाया जा रहा था, उस वक्त उसकी लपटें इलाहाबाद और उसके आस-पास के इलाकों में भी पहुंच चुकी थीं। इलाहाबाद की अवाम ने इस जंग में कयादत के लिए मौलवी लियाक़त अली को चुना। यह जंग बहुत लम्बी तो नहीं चली और मुजाहेदीन को हार का मुंह भी देखना पड़ा था, मगर उन्होंने जिस बहादुरी और शेर-दिली के साथ जंग लड़ी उसे इतिहास कभी भूल नहीं पायेगा। मुगल-बादशाह बहादुरशाह ज़फर और ब्रिजीस कद्र ने मौलाना को इलाहबाद का गवर्नर बनाया था। गवर्नर बनते ही आपने तारीख़ी ख़ुसरोबाग को आज़ाद इलाहबाद का हेडक्वाटर बनाया। चायल इलाके के जागीरदारों और अवाम ने तब आपकी ख़ूब मदद की थी। ब्रिजीस कद्र की मुहर वाले एलान को शहर में जारी करके मौलाना ने अंग्रेज़ों को हिन्दुस्तान से बाहर निकालने की अपील की। आप बेगम हज़रत महल और अन्य बड़े-बड़े मुजाहेदीने-आज़ादी के लगातार सम्पर्क में भी रहे। अपने भरोसेमंद और तेज़-रफ़्तार हरकारों की मदद से बहुत बार तो आपने जंगे-आज़ादी की खबर दिल्ली भी पहुंचायी।
मेरठ की बग़ावत की ख़बर 12 मई को ही इलाहबाद पहुंच गयी थी। गौरतलब है कि उत्तर-पश्चिम राज्यों की हिफाजत के लिए तब इलाहबाद का क़िला ही अंग्रेज़ों का मरकज़ था, जिसमें बड़ी तादात मात्रा में गोला-बारूद भी मौजूद था। मगर उस वक्त इलाहबाद के किले में यूरोपीय फ़ौज या अफसरान मौजूद नहीं थे। सिर्फ 200 सिख फ़ौजी ही किले की हिफ़ाज़त में खड़े थे। अगर जंगे-आजादी के सिपाही इस किले को तब फतह कर लेते तो उस जंग की तस्वीर ही बदल जाती। इलाहाबाद की तमाम खबरें वहां के सोये अवाम को जगाती रही और वहां की असली बग़ावत 6 जून सन् 1857 को हुई। मगर तब तक वहां कई ब्रिटिश अफ़सरान पहुंच गये थे। लेकिन उस दिन आजादी का जूनून तो गोया मुजाहेदीन के सिर चढ़कर बोल रहा था। उन्होंने अंग्रेज़-फ़ौज और अफ़सरान पर हमला करके कइयों को मौत के घाट उतार दिया, लेकिन 107 अंग्रेज़ सिपाहियों ने किले में छिपकर अपनी जान बचा ली। उस वक्त इलाहबाद में छठी रेजिमेंट देसी पलटन और फिरोजपुर रेजिमेंट सिख दस्ते का पड़ाव था।
इलाहाबाद की बग़ावत की भनक पाकर उसे रोकने के लिए अंग्रेज़ों ने प्रतापगढ़ से फ़ौज भेजी थी, मगर 7 जून सन् 1857 को बनारस के मुजाहेदीन भी वहां पहुंच गये। इस बीच शमसाबाद में शफ़ी ख़ान मेवाती के घर एक मीटिंग हुई, जिसमें तय किया गया कि अवाम एक ही दिन हमला करेगी। मगर अंग्रेज़ अफसरान भी तब तक होशियार हो गये थे और उन्होंने हर हाल में क़िले की हिफ़ाज़त करने की क़सम खायी। यूरोपीय अफ़सरान और औरतों को क़िले में ही रखा गया और ख़तरे को भांपते हुए मुजाहेदीन को रोकने के लिए देसी पलटन की दो टुकड़ियां और तोपें दारागंज में नाव के पुल पर तैनात कर दी गयीं। क़िले की तोपों को बनारस से आनेवाले रास्ते की जानिब कर दिया गया। किले में 65 तोपची और 400 सिख घुड़सवार और पैदल सैनिक तैनात कर दिये गये थे। उसी दौरान दारागंज के पंडों ने उन भारतीय सैनिकों को ललकारा जो ब्रिटिश फ़ौज में थे और उन्हें जंगे-आजादी में शिरकत की दावत दी। हवा का रुख बदलता देखकर अंग्रेज़ों ने 6 जून को रात 9 बजे तोपों को क़िले में ले जाने का हुक्म दिया, पर सैनिकों ने भी बग़ावत का फ़ैसला कर लिया था और तोप को क़िले में ले जाकर उलटे अंग्रेज़ों पर ही गोला दागना शुरू कर दिया। देखते-ही-देखते बग़ावत ने ऐसी ख़ौफ़नाक शक्ल अख़्तयार कर ली कि हालात क़ाबू में करना मुश्किल हो गया।
भारतीय सैनिकों ने लेफ्टिनेंट एलेक्जेंडर को गोली मार दी। लेफ्टिनेंट हावर्ड किसी तरह जान बचाकर भाग गया। इस क्रांति में बहुत सारे अंग्रेज़ सैनिक मारे गये, उनके घरों को जला दिया गया। इस जंग में मुजाहेदीन को 30 लाख रुपये का भारी-भरकम ख़ज़ाना भी हाथ लगा। साथ ही, मुजाहेदीन के नेताओं ने जेल से बंदियों को भी छुड़ा लिया। तब क्या था, 7 जून सन् 1857 को इलाहाबाद की कोतवाली पर क्रांति का झंडा फहरने लगा। तब की बग़ावत के बारे में सर जाॅन इस तरह लिखते हैं कि उस वक्त एक भी इन्सान ऐसा नहीं था, जो हमारे खि़लाफ़ नहीं था। गंगा के उस पार से लेकर इस पार तक हमारे ख़िलाफ़ बग़ावत की चिंगारी जल रही थी। अंग्रेज़ों ने 11 जून को कर्नल नील जैसे ज़ालिम अफसर को बग़ावत दबाने के लिए इलाहबाद भेजा। उसकी सेना काफी बड़ी थी जिसमें अंग्रेज, मद्रासी और सिख मुख्य रूप से शामिल थे। 12 जून को दारागंज में नाव के पुल पर, 13 जून को झूंसी पर, 15 जून को मुट्ठीगंज व कीटगंज पर और 17 जून को ख़ुसरोबाग़ पर अंग्रेज़ों का फिर से क़ब्जा हो गया।
18 जून का दिन हिन्दुस्तानी जांबाजों के लिए काले दिन की तरह रहा। इस दिन एक तो इलाहबाद पर अंग्रेज़ों का वापस कब्जा हो गया और दूसरे चैक जी.टी. रोड पर मौजूद नीम के पेड़ पर 800 लोगों को एकसाथ फांसी पर लटका दिया गया साथ ही, जो लोग शहर छोड़कर भाग रहे थे उन्हें गोली मार दी गयी। इलाहबाद के बाशिन्दे और जाने-माने इतिहासकार व स्वतंत्रता-सेनानी विश्वम्भरनाथ पाण्डेय इस बारे में लिखते हैं- नील ने जो क़त्लेआम किया, उसके आगे जलियांवाला बाग कांड भी कुछ नहीं था। सिर्फ 3 घंटे 40 मिनट में ही कोतवाली के पास 634 लोगों को फांसी दे दी गयी। फांसी दिये जानेवाले लोगों की लाश कई दिनों तक लटकती रही। चंद्रशेखर आजाद को समर्पित कंपनीबाग लाशों से पट गया। बदलते वक़्त के साथ दुनिया बदल गयी, पर चैक में वह नीम का पेड़ आज भी बचा हुआ है जिस पर बाग़ियों को फांसी दी गयी थी।
भले ही इस जंग को फ़तह नहीं किया जा सका, मगर मौलाना लियाक़त अली और उनके साथियों ने अंग्रेज़ों का डटकर मुकाबला किया। मौलाना को जब जवाबी कारवाई की बाबत अंग्रेज़ों की तैयारियों की खबर मिली तो आपने अपने साथियों से मशवरा करके अपने बाल-बच्चों के साथ नाना साहब के पास कानपुर चले जाने का फै़सला किया। अंग्रेज़ों ने आपकी गिरफ़्तारी पर 5000 रुपये का इनाम रख दिया। मौलाना मद्रास होते हुए किसी तरह बम्बई पहुंचे, पर वहां अंग्रेज़ों ने आपको गिरफ्तार कर लिया। आपको उम्रक़ैद की सज़ा देकर अण्डमान की जेल में भेज दिया गया और वहीं पर आपका इन्तक़ाल हो गया। आपकी मजार भी कालापानी ;अण्डमानद्ध में ही बनी है। मौलाना लियाकत अली इलाहाबाद से 21 किलोमीटर दूर महगांव के रहनेवाले थे। आपके ख़ानदान के लोग आज भी उसी गांव में रहते हैं ।
सन् 1957 में तब के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी एक प्रोग्राम में महगांव गये थे। आज मौलाना लियाक़त अली का घर ढ़हने के कगार पर है, पर न तो भारत सरकार उसकी मरम्मत के लिए कोई क़दम उठा रही है और न उत्तर प्रदेश की राज्य सरकार ही। आपकी इतनी बड़ी क़ुर्बानी के बदले सिर्फ महगांव से चरवा जानेवाले रास्ते का नाम मौलवी लियाकत अली रोड कर दिया गया है।
(साभार: शाहनवाज़ अहमद क़ादरी)
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