ज़रा याद उन्हें भी कर लो, जो लौट के घर न आये - क्रांतिकारी मौलाना मो0 फज़लेहक़ चिश्ती हनफ़ी ख़ैराबादी...
> मौलाना मोहम्मद फज़लेहक़ चिश्ती हनफ़ी ख़ैराबादी काला-पानी के मंज़र के बारे में कहा कि, "यहां पानी का बेतहाशा शोर, सूरज ऐसा जैसे सिर पर रखा हो, पानी सांपों के जहर की तरह, हवाएं जैसे लू का थपेड़ा और इनके साथ मैं हूं और मेरा अल्लाह"!
मौलाना मोहम्मद फज़लेहक़ चिश्ती हनफ़ी ख़ैराबादी कौन थे आइये इस महान क्रन्तिकारी के विषय में .......
सैय्यद शाहनवाज़ अहमद क़ादरी
आज ‘‘लहू बोलता भी है: जंगे-आज़ादी-ए-हिन्द के मुस्लिम किरदार’’ के लेखक: सैय्यद शाहनवाज़ अहमद क़ादरी ने स्वतंत्र भारत न्यूज़ से हुए साक्षात्कार में आज ‘‘लहू बोलता भी है: जंगे-आज़ादी-ए-हिन्द के मुस्लिम किरदार’’ पर चर्चा के दौरान क्या बताया, आइये उन्ही की कलम से देखते हैं ____
लोकबन्धु राजनारायण के लोग प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक‘‘लहू बोलता भी है: जंगे-आज़ादी-ए-हिन्द के मुस्लिम किरदार’ के लेखक: सैय्यद शाहनवाज़ अहमद क़ादरी मुस्लिम किरदार - मौलाना मोहम्मद फज़लेहक़ चिश्ती हनफ़ी ख़ैराबादी के बारे में तफ्तीश से बताने के पहले कहा कि, "ज़रा याद उन्हें भी कर लो, जो लौट के घर न आये", और फिर बताना प्रारम्भ किया कि,-
फज़लेहक़ की पैदाइश सन् 1797 में सीतापुर के ख़ैराबाद क़स्बे में हुई थी। आपके वालिद का नाम मौलाना फज़ल इमाम था, जो कि ख़ुद एक बड़े आलिम थे। फज़लेहक़ साहब ने कुरआन व हदीस की तालीम अपने वालिद साहब से हासिल की; और साथ-ही-साथ मंतक़, फ़लसफ़ा और हिकमत की तालीम भी हासिल की और मज़ीद तालीम के लिए शाह वलीउल्लाह मोहद्दिस देहलवी के पास दिल्ली गये, जहां शाह साहब के बेटे शाह अब्दुल क़ादिर मोहद्दिस देहलवी से आपने इल्मो-फ़न हासिल किया। पढ़ने के ज़माने से ही आप इतने ज़हीन थे कि अरब के मशहूर शायर शाह अमर-अल-कै़स के क़सीदे की तर्ज़ पर एक अरबी मंे क़सीदा लिखा, जिस पर शाह अल-क़ैस ने एतराज़ किया। इसके जवाब में अल्लामा ख़ैराबादी ने उसी तर्ज़ पर उसी उनवान के 20 अशआर चंद मिनटों मंे लिखकर पढ़े, वहां पर आपके उस्ताद शाह अब्दुल क़ादिर भी मौजूद थे। सबने सुनकर हैरत की, और शाह अल-कैस ने माज़रत की और कहा मैं तुम्हारी ज़हानत का क़ायल हो गया। शाह अब्दुल क़ादिर मोहद्दिस देहलवी ने भी यह सब सुनकर आपकी बहुत तारीफ़ें कीं।
एक बार फज़लेहक़ साहब के उस्ताद शाह अब्दुल क़ादिर मोहद्दिस देहलवी से मुनाज़रे के लिए एक ईरानी मौलाना आये। इत्तफ़ाक़ से उनकी मुलाक़ात ख़ैराबादी साहब से हो गयी। उस वक़्त आपकी उम्र सिर्फ़ 12 या 13 साल थी। दौराने गुफ्तगू मीर बाक़र की उसी किताब का ज़िक्र हुआ जिस पर ईरानी मौलाना मुनाज़रा करने आये थे। जनाब ख़ैराबादी ने जब तवारीख़ व हदीस की रोशनी में कई तरह के एतराज़ पेश किये, तो ईरानी मौलाना हैरत मंे पड़ गये और सुबह होने से पहले ही वहां से रवाना हो गये। सुबह फज़लेहक़ साहब से उस्ताद ने उनके बारे में पूछा तो आपने रात की पूरी बात बतायी। तब उस्ताद ने बहुत शाबाशी दी और कहा कि अब तुम्हें मज़ीद इस्लाह की ज़रूरत नहीं है।
यहां से फ़ारिग़ होकर आपने मदरसों में पढ़ाने का काम अंजाम दिया जिनमें देहली, झज्जर, टोंक, अलवर के मदरसे शामिल हैं। इसके बाद आप लखनऊ और रामपुर के मदरसों के सदर भी रहे। सभी सियासी ज़िम्मेदारियों के बावजूद आप मदरसों में वक़्त जरूर देते थे। आपके शागिर्दों में बहुत बड़ी शख्सियतों के नाम थे; जैसे आपके बेटे शम्सुल उलमा अब्दुक हक़ ख़ैराबादी, जो कि किताबों के राइटर भी रहेऋ मौलाना हिदायतुल्लाह बिजनौरीऋ मौलाना अमजद अली आज़मीऋ मौलाना शाह अब्दुल क़ादिर बदायूंनीऋ मौलाना शाह फज़ल रसूल बदायूंनीऋ मोहम्मद अब्दुल्लाह बिलग्रामीऋ मौलाना अब्दुल अली रामपुरी वगैरह। शेरो-सुखन के आपके शागिर्दों में फिराक़ गोरखपुरी का नाम भी बड़े शायरांे में लिया जाता है। हो भी क्यूं न, जब आप मिर्ज़ा ग़ालिब के कलाम की भी इसलाह कर चुके हों।
वालिद के इंतक़ाल के बाद फलज़ेहक़ साहब को घरेलू ज़िम्मेदारी भी संभालनी पड़ी। फ़ौरी तौर पर आपने रेजीमेंट-आॅफिस में हेड-क्लर्क की नौकरी की, उसके बाद झज्जर के नवाब के यहां एक साल मुलाज़मत की। बाद में वहां से आप अलवर गये और फिर सहारनपुर। उसके बाद रामपुर के नवाब की दावत पर रामपुर आ गये। नवाब के इंतक़ाल के बाद आप वाजिद अली शाह की हुकूमत में दीवानी कोर्ट के आर्गेनाइज़र बने। इसके बाद आप देहली गये, जहां चीफ़-जस्टिस के ओहदे पर आपकी तैनाती हुई। वहीं आपकी मुलाक़ात मिर्जा ग़ालिब के अलावा बहादुरशाह ज़फर से भी हुई। कुछ मुलाक़ातों में आप बहादुरशाह ज़फ़र की शायरी की नशिस्तों के मेहमाने-ख़ास हो गये। उसके बाद तो आप ता-उम्र बहादुरशाह ज़फर के मुशीरे-खास रहे।
तहरीक़े-आज़ादी के लिए तो मौलाना ने ख़ुद ही अपने आपको वक़्फ कर दिया था। रोज़ाना के बदलते हुए सियासी हालात पर आप पैनी नज़र रखते थे और मुसलमानों की शानो-शौकत का ज़वाल खुली आंखों से देखकर हमेशा बेचैन रहते थे। आपने जंग की तैयारी के लिए पहले ख़ुद अपने-आपको तैयार किया, फिर चीफ़ जस्टिस के ओहदे से इस्तीफ़ा दे दिया और मुसलमानों की सियासी रहनुमाई की बागडोर अपने हाथों मंे ली। अंग्रेज़ांे के खिलाफ़ जिन एतराज़ात को आपने अवाम को ख़बरदार करने के लिए शाया किया था, उन्हें उनकी किताब अलशूरा-अल-हिंद मंे इस तरह बयान किया गया है।
1. अंग्रेज़ दीनी मदरसों को बर्बाद करके अंग्रेज़ी स्कूल खोलकर मुस्लिम बच्चों को दीन से दूर और गुमराह कर रहे हैं।
२. नगद पैसे देकर अंग्रेज़ अनाज और खाने-पीने की चीजें सस्ते दामों पर ख़रीदकर ज़खीरे इकट्टठा कर रहे हैं ताकि हिन्दुस्तानियों को मोहताज बनाकर वे अपनी बात मनवा सकें।
3. मुसलमानों को ख़तना कराने से अंग्रेज़ रोकते हैं; साथ ही, मुसलमान औरतों को परदा करने से भी रोकते हैं।
4. फ़ौज या पुलिस को इस्तमाल के लिए जो बंदूकें दी गयी थीं, उसके कारतूस को दांत से खोलना पड़ता था। उन कारतूसों मंे सूअर व गाय की चर्बी लगायी जाती थी ताकि वे अपने मज़हब से दूर हो जाये। यह ख़ुलासा सबसे पहले आपने ही किया था।
5. लेजिसलेटिव कौंसिल में हिन्दुस्तानियों को नहीं रखा जाना। यह साबित करता है कि हुक्मरानों के साथ गुलाम नहीं बैठ सकते हैं।
6. सन् 1850 के एक्ट के ज़रिये हिन्दू और मुसलमानों को ईसाई बनाने की साजिश की गई है।
7. पादरी ऐडमेंड सरकारी नौकरों को लिखता है कि अब पूरे हिन्दुस्तान में चूंकि एक क़ानून और एक हुकूमत है, इसलिए मज़हब भी एक ही होना चाहिए।
इन बातों के अवाम के बीच आने के बाद मुसलमानों के जज़्बात भड़क गये और हिन्दुस्तानी फ़ौजियों में भी बग़ावती जज़्बात भड़क उठे। मेरठ व बरेली की फ़ौज देहली आकर बहादुरशाह ज़फ़र के यहां पेश हुई और उन्हें अपना अमीर बना लिया और कहा कि हम सभी मुल्क़ की आज़ादी के लिए अंग्रेज़ों से लड़ने के लिये तैयार हैं। इस मौक़े पर मौलाना ख़ैराबादी दिल्ली मंे मौजूद नहीं थे। फ़ौजियों को बैरक भेजकर बादशाह आपका इंतज़ार करने लगे। इससे पहले भी बादशाह ब्रिटिश हुकूमत के ख़िलाफ अहम मामलों मंे आप से राय-मशवरा करते रहते थे। तब तक यह उम्मीद तो हो ही गयी थी कि जंग लड़ना ही हैं लिहाज़ा कुछ तैयारियां पहले से कर ली गयी थीं-- जैसे बाहर से आनेवाली फ़ौज और मुजाहेदीन की रिहाइश व खाने वगै़रह का इंतज़ाम, जिसकी ज़िम्मेदारियां बहीख्वाहों को दी जा चुकी थीं। टैक्स की वसूली के लिए बादशाह ने आपके साहबज़ादे अल्लामा अब्दुलहक़ ख़ैराबादी को पहले से ही ज़िम्मेदारी दे रखी थी। आपने आने के बाद बादशाह से मशविरा किया और जंग के जरूरी इंतज़ाम में जुट गये। सुल्तान के हुक्म से मौलाना ने ही मुमलिकत का दस्तूर भी बनाया। मौलाना के लिखे एतराज़ात पर पूरे मुल्क के अंग्रेज़ मुख़ालिफ और एक हो गये। उसमें पुलिस, फौज़ व सरकारी या ग़ैर सरकारी अमलों के साथ जंगे-आज़ादी के फ़तवे पर अमल करने वाले मुजाहेदीन भी शामिल थे।
मौलाना की अपील और तक़रीर से जेहाद का माहौल पूरी तरह तैयार हो चुका था। जुमा की नमाज़ के बाद मौलाना फज़लेहक़ ख़ैराबादी ने मुल्क़ और क़ौम की सलामती के लिए दीनी फरायज़ की तफ़सीलात बयान करते हुए बुहत पुरअसर और जोशीली तक़रीर की। उसके बाद अल्लामा ख़ैराबादी के साथ मुफ्ती सदरूद्दीन, मौलाना अब्दुल क़ादिर, मौलाना फैज़ मोहम्मद बदायूंनी, डाॅ. वज़ीर खान अकबराबादी और मौलाना मुबारक शाह रामपुरी की दस्तख़त से अंग्रेज़ों के खि़लाफ जंग का फ़तवा जारी कर दिया। इस फतवे के बाद सड़कों पर सिर्फ मुजाहेदीन ही दिखते थे या अंग्रेज़ फ़ौज।
11 मई सन्् 1857 मेरठ और आसपास के इलाक़े में सभी हिन्दुस्तानियों ने हिस्सा लेकर अंग्रेज़ों से भरपूर जंग लड़ी, लेकिन अंग्रेज़ी सेना के सामने बहुत देर तक टिक नहीं सके। बहादुरशाह जफ़र को मटियाबुर्ज ;कलकत्ताद्ध भेज दिया गया। उनकी गै़र-मौजूदगी में अल्लामा फज़लेहक़ ख़ैराबादी की ज़िम्मेदारी और बढ़ गयी। आप फौजी, आम बाशिंदों, आंदोलनकारियों, अफसरों , सबके बीच राब्ता करते रहे। उस दौर में बख़्त खान आपके और बादशाह के सबसे ज़्यादा भरोसेमंद रहे। जंग तब तक मथुरा, आगरा, दिल्ली, बिहार और बंगाल तक फैल गयी। अंग्रेज़ी फ़ौज और हिन्दुस्तानी बाग़ी फौज़ के साथ सिविल मुजाहेदीन आ जुड़ेे थे। उनमें और अंग्रेज़ों के बीच कई महीने तक जंग लड़ी गयी, लेकिन अंग्रेज़ फ़ौज कामयाब रही और दिल्ली पर अंग्रेज़ांे की हुकूमत क़ायम हो ही गयी।
हार के बाद मौलाना खै़राबादी ने हार की वजहों के बारे में जो लिखा उसके मुताबिक़ मज़बूत हुकूमत का न होना, नये हथियारों की कमी और वक़्त पर कुमुक का न पहुंचना तो वजहें थीं ही लेकिन हार की बड़ी वजह ग़द्दारी थी जिनमें हिन्दू व मुसलमान दोनों ही शामिल थे-- यहां तक कि बादशाह के भरोसेमंद और ज़िम्मेदार बड़े ओहदेदारों ने भी चंद सिक्कों के लिए अपने ईमान का सौदा नसरानियों के हाथों न सिर्फ बेच दिया, बल्कि मुसलमानों की प्लानिंग और राज़ तक उन्हंे बता दिया। इसके बाद तो अंग्रेज़ हुकूमत ने मुजाहेदीन की औरतों और बच्चों तक को चुन-चुन कर मार दिया। उसके बाद जितना उनके बस का था, आम मुसलमानों को उन्होंने क़त्लो-ग़ारत, लूटपाट और आगज़नी का शिकार बनाया।
देहली पर अंग्रेज़ हुकूमत के बाद मौलाना ख़ैराबादी ही मोस्ट वांटेड थे, लेकिन आप अपने बाल-बच्चों को लेकर किसी तरह छुपते-छुपाते पांच दिनों तक भूखे-प्यासे रहकर अपने वतन खै़राबाद पहुंचे। इसी दरम्यान जितने भी मुजाहेदीन बच गये थे, उन्हें आपने हिफ़ाज़त से बेगम हज़रत महल के पास लखनऊ पहुंचाने की हिदायत की। ख़ैराबाद में एक दिन रुककर मौलाना अवध पहुंचे। आपको बेगम हज़रत महल ने मुशीरे-ख़ास मुक़र्रर किया और फ़ौज की क़यादत का काम सौंप दिया। जब अंग्रेज़ी फ़ौज ने अवध को घेरा, उस वक़्त जंग का सारा निज़ाम आपके ही हाथांे मंे था। दस दिनों तक जंग चली, जिसमंे ज़्यादातर मुजाहेदीन शहीद कर दिये गये और बिल-आख़िर अवध पर भी नसरानी हुकूमत क़ायम हो गयी।
मौलाना गिरफ़्तार हुए। आप पर फ़साद फैलाने, बर्तानवी हुकूमत के ख़िलाफ साजिश करने, अंग्रेजों के क़त्ल के अलावा जो-कुछ इल्ज़ामात लग सकते थे आप पर लगाये गये और आखिर में बर्तानवी हुकूमत का सबसे बड़ा दुश्मन होने का भी आप पर इल्ज़ाम लगाया गया। आप पर मुक़दमा चला और 4 मार्च सन् 1859 को जुडिशियल कमिश्नर ;लखनऊद्ध और खैराबाद के कमिश्नर मेजर बावर ने आपको उम्रकैद बा-मशक्कत की सज़ा सुनाकर अण्डमान निकोबार भेज दिया।
अपने आखि़री दिनों को आपने अण्डमान में बतौर कै़दी निहायत ही तंगी, परेशानी और अज़ीयत से गुज़ारे। आपके साहबज़ादे आपकी रिहाई के लिए मुसलसल मुक़दमा लडे़-- हिन्दुस्तान की अंग्रेज़ी अदालतों के बाद इंग्लैण्ड तक जाकर मुक़दमा लड़ा और कामयाब हुए। रिहाई का परवाना लेकर जिस वक़्त अल्लामा के साहबज़ादे अण्डमान पहुंचे तो देखा कि एक जनाज़ा जा रहा है, जिसमें बहुत से लोग शामिल हैं। आपने जब दरियाफ़्त किया तो मालूम हुआ कि जनाज़ा आपके वालिद-ए-माजिद अल्लामा फज़लेहक़ ख़ैराबादी का ही है।
अल्लामा खैराबादी ने सन् 1857 की जंगे-आज़ादी पर मुजाहिदों पर किये गये जुल्मों-सितम, अंग्रेज़ी बर्बरियत और जंगे-आज़ादी के उतार-चढ़ाव व मुल्क के सियासी हालात पर जेल की दीवारों पर अरबी में कोयले से लिखा, जिसे बाद में तीन किताबों की शक्ल में शाया किया गया। अण्डमान की जेल में उनकी लिखी इबारत उनके सियासी नज़रिये की गहराई पर हैरत और फक्ऱ होता है।
आपने जो अरबी में अपने बारे में जो लिखा था उसका मतलब ये है कि मुझे क़ैद में हर मुमकिन मुसीबत पहुंचायी गयी, एक फटेहाल इंसान का क़सूर सिर्फ़ यह है कि उसने ईमान और इस्लाम पर क़ायम रहते हुए इंक़लाब का साथ दिया। न देता तो क्या करता, क्या पूरे हिन्दुस्तानियों को नसरानी बनते हुए देखता रहता?
आपने काला-पानी के मंज़र के बारे में कहा कि यहां पानी का बेतहाशा शोर, सूरज ऐसा जैसे सिर पर रखा हो, पानी सांपों के जहर की तरह, हवाएं जैसे लू का थपेड़ा और इनके साथ मैं हूं और मेरा अल्लाह!
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