तार्किक पाठ्यक्रम समय की मांग: डॉ. प्रियंका 'सौरभ'
कुल मिलाकर पाठ्यपुस्तकों से हटाई जाने वाली सामग्री, भारत के भूतकाल और वर्तमान की नकारात्मक धारणा पर आधारित है।
यह मानसिकता कमजोर है, और केवल कुछ को हटाकर अपने इतिहास को बदलने का प्रयास करती है। इनके लिए भारतीय इतिहास के रचनात्मक, समावेशी, तार्किक, सुसंगत और विद्यार्थी अनुकूल संस्करण को लाना असंभव था, क्योंकि रचना में एक सकारात्मक गुण है, जिसे राजनीतिक ताकतें अक्सर कम आंकती हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि इतिहास में एकपक्षीय दृष्टिकोण से आगे बढ़कर चिंतन और तार्किक पाठ्यक्रम का विकास किया जाए।
एनसीईआरटी से अपेक्षा है कि वह वर्तमान विवाद से अप्रभावित रहते हुए छात्रों के ऐतिहासिक दृष्टिकोण के विकास से संबंधित पाठ्यक्रम का विकास करेगी, न कि तथ्यों के चयन में छात्रों को उलझाएगी।
-:डॉक्टर प्रियंका 'सौरभ':-
हिसार (हरियाणा): रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस, कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार - डॉ. प्रियंका 'सौरभ' ने "तार्किक पाठ्यक्रम समय की मांग" करते हुए अपनी प्रस्तुति में कहा कि, एनसीईआरटी कक्षा VI से XII तक की इतिहास, समाजशास्त्र और राजनीति विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों में बदलाव कर रहा है। एक मजबूत शिक्षा प्रणाली में शिक्षण सामग्री का संशोधन पाठ्यक्रम के लिए समान होना चाहिए। लेकिन भारत में स्कूली पाठ्यक्रम हमेशा नवीनतम शोध के साथ तालमेल बनाए रखते हैं। पक्षपातपूर्ण या संकीर्ण दृष्टिकोण से बचने के लिए स्वतंत्रता के बाद से, हमारी स्कूली पाठ्यपुस्तकें अक्सर कला, साहित्य, दर्शन, शिक्षा, विज्ञान, प्रौद्योगिकी और आर्थिक विकास में भारत की प्रगति को मान्यता देने से बचती हैं। पहले की पाठ्यपुस्तकें भारतीय इतिहास के बारे में एक ऐसा दृष्टिकोण बनाती हैं जो विश्व की सभ्यता पर भारत के गहन प्रभाव को दबा देती है। इसके परिणामस्वरूप हमारी राष्ट्रीय पहचान और ऐतिहासिक कथा के बारे में एक विषम धारणा बनती है। स्कूली छात्रों को कम उम्र में ऐतिहासिक घटनाओं और संघर्षों की आक्रामकता के संपर्क में लाना उन्हें संकट में डाल सकता है। स्कूली पाठ्यक्रम में शिक्षा के अनुचित चरणों में ऐतिहासिक संघर्षों का परिचय, बच्चों के दिमाग में व्यापक ऐतिहासिक संदर्भ की कमी की धारणा को अमर कर सकता है। एक संतुलित कथा बच्चों के दिमाग में दुश्मनी और पूर्वाग्रह पैदा करने के जोखिम को कम करती है।
उन्होंने कहा कि, एकतरफा ऐतिहासिक तथ्य स्कूली बच्चों के बीच सामाजिक सामंजस्य और आपसी सम्मान में बाधा डालेंगे। सार्थक पाठ्यपुस्तक संशोधनों का विरोध एक पुरानी संकीर्ण वैचारिक विचार प्रक्रिया को दर्शाता है, जो भविष्य में ऐतिहासिक शिकायतों और शत्रुता को शाश्वत बनाता है। एक संतुलित, विश्वसनीय और भरोसेमंद ऐतिहासिक कथा, संघर्ष समाधान और आपसी सम्मान के सकारात्मक उदाहरणों को रेखांकित करती है। यह छात्रों को अपने जीवन में सकारात्मक उदाहरणों और सिद्धांतों को लागू करने के लिए प्रेरित करती है। स्कूली छात्रों को एक संतुलित इतिहास पढ़ाना जो संघर्ष-आधारित कथाओं को कम करता है, उन्हें भारत की विरासत के बारे में बेहतर जानकारी के साथ जिम्मेदार और सहानुभूतिपूर्ण नागरिक बनने में सक्षम बनाता है। ऐसी पाठ्यपुस्तकें बच्चों में संज्ञानात्मक और भावनात्मक आधार बनाती हैं, जो भविष्य के आलोचनात्मक विश्लेषण के लिए आवश्यक है। संतुलित कथाओं पर ध्यान केंद्रित करते हुए स्कूली पाठ्यपुस्तकों को संशोधित करने का कोई भी प्रयास अंत नहीं बल्कि एक शुरुआत है। छात्रों को ऐसी संतुलित पाठ्यपुस्तकों से जो आधार मिलता है, वह उन्हें बाद के वर्षों में एक गहरी ऐतिहासिक समझ बनाने में मदद करेगा। स्कूली पाठ्यपुस्तकों को छात्रों की उभरती जरूरतों को पूरा करने में उत्तरदायी होने के लिए बदलते समय के साथ तालमेल बिठाने की जरूरत है।
डॉक्टर प्रियंका 'सौरभ' ने कहा कि, पाठ्यपुस्तकों में क्या पढ़ाया जाए और क्या न पढ़ाया जाए, इसकी चर्चा लगातार होती रही है, क्योंकि स्कूल की पाठ्यपुस्तकें ही वह माध्यम हैं, जिनके द्वारा सुविधाजनक विमर्श को आगे बढ़ाया जा सकता है। विवाद तब होता है, जब एक विमर्श आपके लिए सुविधाजनक होता है और दूसरे वर्ग के लिए असुविधाजनक। वर्तमान में इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में किए गए कुछ बदलावों से संबंधित विवाद को भी उसी संदर्भ में देखना चाहिए, जब एक वर्ग का सुविधाजनक दृष्टिकोण दूसरे वर्ग के विमर्श के अनुरूप नहीं होता है। देखा जाए तो इस प्रकार का विवाद पहली बार नहीं हुआ है। भारत के शैक्षणिक इतिहास में इस प्रकार के विवाद पहले भी होते रहे हैं। विश्व भर की शिक्षा व्यवस्थाएं अपने-अपने देश के पाठ्यक्रम को समझ और तार्किक दृष्टिकोण पर आधारित बनाना चाह रही हैं, वहीं हमारे देश में विवाद इस बात पर हो रहा है कि किस पक्ष का तथ्य सही है? यहां असुविधाजनक तथ्य को वृत्तांत की सहायता से सदैव छुपाने का प्रयास रहता है। इतिहास को न केवल तथ्यों से समझा जा सकता है और न केवल वृत्तांतों से। इसलिए यह आवश्यक है कि दोनों का उचित मात्रा में समावेश हो, मगर हमारे देश में इतिहास लेखन की शैली में तथ्य और वृत्तांत का विभाजन काफी बारीक है। इस विषय के पुनरावलोकन की आवश्यकता है। जहां पूरे विश्व की शैक्षणिक व्यवस्थाएं अपने स्वरूप को बदल रही हैं और छात्रों को तथ्यों से भरने के बजाय उन्हें इतिहास आधारित दृष्टिकोण से युक्त करने पर जोर दे रही हैं, जिससे छात्रों में इतिहास के प्रति एक वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण विकसित हो सके। आज के तकनीकी दौर में इतिहास बोध होने पर छात्र स्वयं ही ऐतिहासिक तथ्यों की पड़ताल कर सकता है।
उन्होंने कहा कि, किसी देश की शिक्षा व्यवस्था के लिए आवश्यक है कि वह अपने छात्रों को तथ्य आधारित, वस्तुनिष्ठ पाठ्य सामग्री उपलब्ध कराए, क्योंकि यही छात्र भविष्य के विमर्श को न केवल आगे बढ़ाते हैं, अपितु नए विमर्श की शुरुआत भी करते हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि इतिहास में एकपक्षीय दृष्टिकोण से आगे बढ़कर चिंतन और तार्किक पाठ्यक्रम का विकास किया जाए। एनसीईआरटी से अपेक्षा है कि वह वर्तमान विवाद से अप्रभावित रहते हुए छात्रों के ऐतिहासिक दृष्टिकोण के विकास से संबंधित पाठ्यक्रम का विकास करेगी, न कि तथ्यों के चयन में छात्रों को उलझाएगी। पाठ्यपुस्तकें किसी देश की सरकार द्वारा दिया गया आधिकारिक कथन होती हैं। इस रूप में ये वैचारिक या सैद्धांतिक परियोजना होती है। इतिहास और राजनीति विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों का पुनरीक्षण वैसे भी अधिक संवेदनशील होता है। ये विषम समकालीन प्रासंगिकता के मुद्दों पर विचार करने के लिए छात्रों को प्रोत्साहित करते हैं। उन्हें सामाजिक और राजनीतिक प्रक्रियाओं को इतिहास के पलड़े पर तौलकर, इतिहास और वर्तमान के बीच तार्किक सामंजस्य बनाना सिखाते है। इन पुस्तकों के माध्यम से विद्यार्थी देश-विदेश के सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर अपने विचार बनाने का प्रयत्न करता है।
डॉ. प्रियंका 'सौरभ' ने कहा कि, एनसीईआरटी की मूल पुस्तकों को इसी विचार के साथ रूप दिया गया था। कुल मिलाकर पाठ्यपुस्तकों से हटाई जाने वाली सामग्री, भारत के भूतकाल और वर्तमान की नकारात्मक धारणा पर आधारित है। यह मानसिकता कमजोर है, और केवल कुछ को हटाकर अपने इतिहास को बदलने का प्रयास करती है। इनके लिए भारतीय इतिहास के रचनात्मक, समावेशी, तार्किक, सुसंगत और विद्यार्थी अनुकूल संस्करण को लाना असंभव था, क्योंकि रचना में एक सकारात्मक गुण है, जिसे राजनीतिक ताकतें अक्सर कम आंकती हैं।
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