'भाषा' की राजनीति: रघु ठाकुर
लखनऊ/भोपाल: 'भाषा' की राजनीति पर, ख्यातिनाम गाँधीवादी- समाजवादी चिन्तक व विचारक तथा शहीद-ए-आजम भगत सिंह व डाॅ. लोहिया के समतामूलक समाज संरचना हेतु समर्पित- रघु ठाकुर, संस्थापक व राष्ट्रीय संरक्षक- लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी ने लोहिया सदन, भोपाल से अपना बयान जारी किया जिसमें रघु ठाकुर ने कहा कि, भारतीय राजनीति, सत्ता और कुर्सी के सकीर्ण स्वार्थाें में उलझी रहती है तथा बड़े सवालों से बचती है।
रघु ठाकुर ने कहा कि, आज से लगभग 23 दिन पूर्व भारत सरकार द्वारा बनाई गई के.कस्तूरी रंगन कमेटी की रपट आई थी। दक्षिण भारतीय के.कस्तूरी रंगन एक प्रसिद्ध इसरो वैज्ञानिक रहे है। भारत सरकार ने उनके नेतृत्व में गठित समिति को नई शिक्षा नीति का दस्तावेज़ बनाने का काम सौंपा था।
रघु ठाकुर ने बताया कि, 'के.कस्तूरी रंगन कमेटी' ने अपने प्रस्ताव में शिक्षा के लिए मातृभाषा और हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेजी के प्रयोग का सुझाव दिया है। उनका सुझाव भी लगभग त्रिभाषा फार्मूला की ही तर्ज पर है, जिसमें अंग्रेजी के ज्ञान को भी स्थान यद्यपि बाध्यता भी नहीं है। उसी प्रकार हिन्दी भाषा के ज्ञान को भी स्थान है परन्तु बाध्यता नहीं है। उसके बावजूद भी दक्षिण भारत के कुछ राजनेताओं ने इसका विरोध सुरु किया है और भाषा के नाम पर फिर एक बार कुर्सी की राजनीति सुरु की है।
रघु ठाकुर ने बताया कि, सबसे पहला बयान स्व. करूणानिधि की बेटी श्रीमति कनिमोझी ने दिया और कहा कि, "भाषा के नाम पर उनकी भारतीयता पर सवाल उठाए गए’’। उनके समर्थन में कांग्रेस पार्टी के जनाधार विहीन नेता श्री पी.चिदंबरम भी आगे आए और बोले कि ‘‘हिन्दी अंग्रेजी दोनों को देश की अधिकारिक भाषा बनाने के लिए जरूरी है कि केन्द्रीय कर्मी इन भाषाओें के जानकार हों। केन्द्र सरकार के गैर हिन्दी भाषाई कर्मी बोलचाल के लायक हिन्दी सीख लेते है, फिर हिन्दी भाषाई कर्मचारी इतनी अंग्रेजी क्यों नहीं सीख सकते"?-
रघु ठाकुर ने बताया कि, श्री कुमार स्वामी जो श्री एच.डी. देवगौड़ा के बेटे हैं, ने कहा कि, "हिन्दी की राजनीति ने श्री एच.डी.देवगौड़ा, श्री करूणानिधि और श्री कामराज जैसे दक्षिण भारतीय नेताओं को प्रधानमंत्री बनने से रोका। हालांकि देवगौड़ा यह बाधा पार करने में सफल रह। लेकिन भाषा की वजह से उनका कई बार उपहवास हुआ। यहां तक कि उनका लाल किले से जबरन हिन्दी में भाषा देना पड़ा था। इस हद तक हिन्दी की राजनीति देश में काम कर रही है।‘
रघु ठाकुर ने कहा कि, "दक्षिण भारत के ये तीन व्यक्ति अपनी सत्ता की राजनीति के लिए सत्य कहने के बजाय लोगों को भड़काने का प्रयास कर रहे और अपनी बयानबाजी से कुर्सी राजनीति को पंख दे रहे है।"
रघु ठाकुर ने कहा कि,आइये, हम इन तीनों के बयानों का विश्लेषण करें तथा सबसे पहले श्रीमति कनिमोझी से पूछें कि, आपकी भारतीयता पर प्रश्न-चिन्ह कब और किसने लगाया है?- इससे बड़ा झूठ क्या हो सकता है? उनके अनुसार उनसे हवाई अड्डे के पुलिस अधिकारी ने कहा कि, आप भारतीय हैं। वह तब कहा जब उससे श्रीमति कनिमोझी ने तमिल या अंग्रेजी में बात करने को कहा। निःसंदेह पुलिस कर्मचारी को उनसे उनके समझने योग्य भाषा में बात करनी थी पर विचित्र यह है कि कनिमोझी पिछले 18 वर्षों से सांसद है, स्व. करूणानिधि की बेटी है तथा दिल्ली उनका जाना नियमित होता रहता है। इतने वर्षों में कभी ऐसी घटना नहीं हुई तो अचानक वह पुलिसकर्मी ऐसी धृष्टता कैसे कर बैठा? एक व्यक्ति के अपराध को समूचे हिन्दी भाषियों या भारतवासियों का अपराध कैसे माना जा सकता है। पिछले सत्तर वर्षों में किसी पुलिसकर्मी की ऐसी शिकायत अभी तो नहीं मिली और सिपाही का कोई विवरण भी नहीं मिला कि, उसकी पृष्ठ-भूमि क्या है?- फिर भी उनकी शिकायत सूचना पर उसे हवाई अड्डे से हटाकर जाॅच का आदेश दिया गया है। हमें जाॅच रिर्पोट का इंतजार करना चाहिये।
रघु ठाकुर ने बताया कि, आजादी के आंदोलन के दिनों में गाँधी जी के नेतृत्व में राष्ट्र-भाषा को प्रचारित करने का अभियान चला था। महात्मा गाँधी स्वतः गुजराती भाषाई थे। उन्होंने देश की वास्तविकता को समझ कर हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने की बात कही थी। इस बात को लेकर गाँधी जी का बहुत सरल तर्क था कि देश की अधिकाँश आबा दी हिन्दी बोलती और सम-हजयती है, इसलिए हिन्दी राष्ट्रभाषा के लायक है। इसके पीछे न कोई सत्ता का तर्क था न कोई भाषाई साम्राज्यवाद का, बल्कि एक सरल सा तर्क था कि, 'राष्ट्रभाष' वह हो जो बहुसंख्यक आसानी से समझ और बोल सकें। गाँधी ने 'राष्ट्रभाषा-आंदोलन' की शुरुआत दक्षिण से ही की थी और उसका प्रथम केन्द्र तमिलनाडु में बनाया था। यह तो 1920-30 के बाद जब पेरियार ने ब्राम्हण विरोधी द्रविड आंदोलन चलाया तथा उन्होंने तमिलनाडु में हिन्दी को ब्राम्हणी भाषा कहकर उसकी खिलाफत की। हालांकि हिन्दी कभी ब्राम्हणी नहीं रही। संस्कृत को लेकर एक बार कहा भी जा सकता है। फिर दक्षिण के ब्राम्हण तो तमिल ही बोलते रहे होगे। क्योंकि वहाॅं का आम आदमी तो तमिल ही समझ सकता था। तो क्या तमिल को ब्राम्हणी भाषा कहा जाना उचित होगा?- कई बार जजवाती खाये तर्क के पापों को उखाड देती है, यही स्थिति, श्रीमति कनिमोझी के बयान की है।
रघु ठाकुर ने कहा कि, "हालांकि आजादी के कुछ समय बाद तक तमिलनाडु में हिन्दी विरोधी आंदोलन की कोई विशेष जड़ें नहीं थी। मुझे आश्चर्य होता है कि, तमिल भाई फिल्मों में हिन्दी फिल्मों और गानों को बड़े मनोयोग से सुनते है तो वे भाषा का विरोध क्यों करेंगे? अब तो वैसे भी लाखों तमिल देश के अन्य हिस्सों में रह रहे है तथा आराम से हिन्दी बोलते है। दरअसल मीडिया और सियासत मिलकर आम तमिल को भड़काने का काम करती है। जैसा कि मैंने पहले कहा कि, श्री पी. चिदंबरम तमिलनाडु के जनाधार विहीन नेता हैं, जो केवल जोड़-तोड़ की सियासत करते हैंऔर किसी गठजोड़ के साथ अंतिम समय पर रिस्ता जोड़कर कुर्सी हथियाते है। उन्होंने कितना मूर्खतापूर्ण बयान दिया जो हास्यास्पद भी है। वे कह रहे हैं कि, गैर हिन्दी भाषाई कर्मचारी काम चलाऊ हिन्दी सीख लेते हैं तो फिर हिन्दी भाषाई कर्मचारी इतनी अंग्रेजी क्यों नहीं सीख पाते? अगर वे यह कहते कि, हिन्दी भाषाई कर्मचारी काम चलाऊ तमिल क्यों नहीं सीख सकते तो उनका प्रश्न वाजिब होता?-
परन्तु उनकी चिंता तमिल की नहीं बल्किअंग्रेजी की है। हालाकि इतनी काम चलाऊ अंग्रेजी तो अब बडी संख्या में हिन्दी भाषाई नौकरी करने वाले भी सीख गये हैं।"
रघु ठाकुर ने कहा कि, "मेरा ऐसा सोचना है कि हर भारतीय को अपनी मातृभाषा के अलावा कोई भी कम से कम एक या दो अन्य भारतीय-भाषा सीखना चाहिए।"
रघु ठाकुर ने बताया कि, "मैंने स्वतः ही जेल में कन्नड़, मराठी, गुजराती का लिखना बोलना सीखा था। अगर भारत सरकार कम से कम केन्द्र के सरकारी कर्मचारियों को यह अनिवार्य कर दे कि, उन्हें अपनी मातृ भाषा के अलावा कोई एक भारतीय भाषा सीखना अनिवार्य होगा और जो केन्द्र के कर्मचारी किसी दूसरे राज्य में जाते हैं या वहां का कैडर पाते है तो उन्हें उस राज्य की प्रादेशिक-भाषा सीखना अनिवार्य होगा। याने उत्तर भारत का कर्मचारी या हिन्दीभाषाई वाला कर्मचारी केरल, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक आदि में जाए तो उसे उस राज्य की भाषा सीखना अनिवार्य है। इस उद्देश्य के लिए 2 या 3 माह के विशेष प्रशिक्षण शिविर आयोजित किए जा सकते है और इसी प्रकार दक्षिण भारत के अधिकारियों के लिए जो उत्तर भारत में काम करते हो ऐसी अनिवार्यता हिन्दी सीखने की हो तो भाषायी विवाद कम होगे, राष्ट्रिय एकता मजबूत होगी तथा इससे प्रशासन जनमुखी बनाने में मदद मिलेगी और संवेदनशीलता बढ़ेगी।"
रघु ठाकुर ने कहा कि, मैं अभी इस बहस में नहीं जाउंगा कि आदि-शंकराचार्य जब उत्तर भारत में आए तो उन्होंने आम लोगो से किसभाषा में संवाद किया होगा?- इस तर्क को देने के साथ एक खतरा भी है कि कहीं यह हमारे चिदंबरम जैसे बुद्धिजीवी मिलकर आदि -शंकराचार्य को ब्राम्हणवादी सिद्ध न करने लगें। हालांकि यह एक शुभ लक्षण है कि आदि -शंकराचार्य को उत्तर भारत और हिन्दी भाषाई क्षेत्रों में सदैव सम्मानित स्थान मिला है, तथा किसी ने आज तक भाषाई आधार पर उनका विरोध नहीं किया। भाषा के आधार पर विरोध तार्किक नहीं हो सकता। देश के हिन्दू मानस ने सभी शंकराचार्याें चाहे वह तमिल भाषाई हो या उड़िया भाषाई या कोई अन्य भाषाई, सभी को समाज द्वारा सदैव सम्मानित व्यक्ति के रूप में स्वीकारा गया तथा यह एक राष्ट्रीय एकता का प्रमाण है।
चिदंबरम को इतनी भी समझ नहीं है कि, इतनी काम चलाऊ अंग्रेजी तो भारत का हर विद्यार्थी पढ़ने और समझने लगा है।
रघु ठाकुर ने कहा कि, मैं मानता हूॅ कि, पिछले कुछ वर्षों से उनके और उनके बेटे के ऊपर आर्थिक अपराध के मुकदमें चल रहे हैं, जिसका उनके मष्तिष्क पर प्रभाव पड़ा है परन्तु इस सीमा तक मति-भ्रम उन्हें होगा यह कल्पना के परे है। उन्हें अब तमिलनाडु में चुनाव जीतने के लिए डी.एम.के. की आवश्यकता है और वह इतने राजनैतिक रूप से चतुर तो हैं ही। जो जानते है कि, डी.एम.के. की गाय की पूँछ पकड़े बगैर उन्हें चुनाव की वैतरणी पार करना सम्भव नहीं है।
रघु ठाकुर ने कहा कि, "श्री कुमार स्वामी तो और भी बड़े -झूठे साबित हो रहे हैं। वह कह रहे हैं कि हिन्दी भाषा की राजनीति ने दक्षिण वालों को प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया। जबकि तथ्य इसके विपरीत हैं। के. कामराज उस जमाने की संयुक्त कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रिय अध्यक्ष बने थे जिस समय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू थे और कांग्रेस देश की सबसे सशक्त पार्टी थी। स्व. नरसिंह राव तेलगू भाषायी थे और उन्हें हिन्दी, मराठी जैसी भारतीय भाषाओं का बहुत अच्छा ज्ञान था। नरसिंह राव जी के हिन्दी भाषा के ज्ञान, व भाषणों को क्या कोई हिन्दी भाषायी भी चुनौती दे सकता है? श्री राम कृष्ण हेगडे जो कन्नड़ थे यद्यपि प्रधानमंत्री नहीं बन सके, (उसके कारण राजनैतिक थे पर भाषायी कारण नहीं था) परन्तु उनकी हिन्दी उत्कृष्ट थी। श्री देवगौड़ा को प्रधानमंत्री बनाने का समर्थन केवल दक्षिण से नहीं हुआ था बल्कि उत्तर भारत के बिहार, उ.प्र., पश्चिमी बंगाल जैसे राज्यों ने आगे आकर समर्थन किया था। अगर हिन्दी भाषा की राजनीति होती और उस अर्थ में होती जिस अर्थ में कुमार स्वामी कह रहे है तो क्या देवगौड़ा प्रधानमंत्री बन सकते थे?- सच्चाई तो यह है कि, हिन्दी ही वह पीड़िता और दुर्भाग्यी है जिसकी कोई भाषायी राजनीति नहीं है अन्यथा वह कभी की राष्ट्रभाषा के रूप में संवैधानिक तरीके से प्रतिष्ठापित हो चुकी होती। श्री देवगौडा जी हम लोगों के साथी रहे हैं, उन्होंने उत्तर भारत में एक दो नहीं कई किसानों की रैलियों को सम्बोधित किया है और हिन्दी में ही किया है। सच्चाई तो यह है कि देश के किसान आज भी चरण सिंह के बाद देवगौड़ा को अपने बीच के किसान जैसा मानते है। जाने-अनजाने अपने स्वार्थवश कुमार स्वामी भाषा की सत्ता के राजनीतिक खेल में अपने ही पिता की व्यापकता को सिकोड़ रहे हैं और एक राष्ट्रीय व्यक्ति को राज्य में सीमित कर रहे हैं। वे भूल रहे हैं कि, सिकुड़न का कोई अन्त नहीं होता। भाषा, उसके बाद जाति याने वोकालिंगा और लिगांयत, फिर कुछ जिले तक।"
रघु ठाकुर ने कहा कि, "दक्षिण भारत के नेताओं से मैं कहना चाहूॅगा कि, वे हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकारें और अपनी मातृभाषा को साथ में रखें। इन दोनों को अनिवार्य बनाएं और अंग्रेजी को ऐच्छिक। डाॅ. लोहिया कहते थे- चले देश में देशी भाषा, हिन्दी, तमिल, तेलगू, कन्नड़ ये सब एक ही परिवार की बहनें हैं, अंग्रेजी वाह्य साम्राज्यवादी भाषा रही है और है।"
रघु ठाकुर ने कहा कि, मेरी इस संदर्भ में अपील है कि:-
1. भारत सरकार श्री के कस्तूरी रंगन जी को हिन्दी का प्रतिनिधि घोषित करें और उन्हें दक्षिण भारत में फैलाई जा रही गलत फहमियों को दूर करने का काम सौपें।
2. हर उत्तर भारतीय को संकल्प लेना चाहिए कि हम अपनी मातृभाषा और हिन्दी के अलावा कोई एक दक्षिण भारतीय भाषा जरूर सीखेंगे।
3. हर हिन्दी भाषी को प्रयास कर कम से कम दस दक्षिण भारतीय मित्र बनाना चाहिए और उनसे पारिवारिक रिश्ते भी बनाना चाहिए।
4. पाठ्यक्रमों में तमिल, तेलगू, कन्नड़ साहित्य को हिन्दी में अनुवाद कर उत्तर भारत की शालाओं में और गाँधी - लोहिया, जय प्रकाश, प्रेमचन्द आदि के साहित्य को तमिल, तेलगू आदि में अनुवाद करा कर दक्षिण भारत के पाठ्यक्रमों में शामिल किया जाना चाहिए।
रघु ठाकुर ने अंत में विश्वाशपूर्वक आशा व्यक्त की और कहा कि, "मुझे उम्मीद है कि, राष्ट्रभाषा और भारतीय भाषाएँ इस फैलाई जा रही धुंध को मिलकर पार करेंगे तथा एक भारत का निर्माण करेंगे"।
swatantrabharatnews.com