विशेष: 09 अगस्त- क्रांति दिवस - भारत छोड़ो आंदोलन/ करो या मरो और प्रतियोगी जीवन: आस्था नन्द पाठक
आज 'विशेष' में प्रस्तुत है, इंडियन रेलवे के IRAS तथा उत्तर रेलवे लोको वर्कशॉप में पदस्थापित - श्री आस्था नन्द पाठक द्वारा प्रस्तुत आलेख :
"भारत छोड़ो आंदोलन/ करो या मरो और प्रतियोगी जीवन":
8 अगस्त 1942 को बम्बई के ग्वालिया टैंक मैदान में आज के ही दिन गाँधी जी ने देश को 'करो या मरो' का मंत्र दिया। उन्होंने कहा-
"एक मंत्र है, छोटा सा मंत्र, जो मैं आपको देता हूँ। उसको आप अपने हृदय में अंकित कर सकते हैं और अपनी एक एक सांस से व्यक्त कर सकते हैं। वह मंत्र है, 'करो या मरो'(Do or Die)....या तो हम भारत को आज़ाद करायेंगे या इसी कोशिश में अपनी जान दे देंगे। लेकिन अपनी ग़ुलामी का स्थायित्व देखने को हम ज़िन्दा नही रहेंगे..."
गांधी जी के भाषण से देश में सनसनी फैल गई । उसके बाद अनिश्चितता और संशय में दिग्भ्रमित भारत की जनता ने एकजुट होकर जो अदम्य साहस और लडाकूपन का परिचय दिया उससे अंग्रेजी राज की चूलें हिल गईं।
इस शक्तिशाली मंत्र में वह ऊर्जा थी जिसके चलते सबसे प्रतिकूल परिस्थिति होने के बावजूद भी, अंग्रेजी सरकार द्वारा सबसे पाशविक दमन के बावजूद पूरे देश मे अभूतपूर्व स्वतःस्फूर्त बिद्रोह हुआ और ब्रिटिश दासता से पूर्ण मुक्ति जन-जन का जीवन संकल्प बन गया।
इस नारे का एकमात्र उद्देश्य था कि भारत की जनता एकजुटता और अपनी समस्त आंतरिक शक्ति से अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने को ही अपना अंतिम ध्येय बना ले, भले ही इसमे जान क्यों न चली जाए....
हममे से अनेक ऐसे लोग/छात्र हैं जो अनेक विषम परिस्थितियों, अभाव और संघर्षों में रहते हुए जीवन मे कोई बड़ा लक्ष्य चुन लेते हैं और फिर उस परम ध्येय के पीछे अपना सर्वस्व दांव पर लगा देते हैं।
मंज़िल की तरफ बढ़ते हुए अनेक ऐसे मौके आते हैं जब व्यक्ति परिस्थितियों और क्रूर नियति को स्वीकार करके हिम्मत हारने लगता है। हारने की मानसिकता में हम अनेक प्रकार के 'व्यावहारिक' लगने वाले कारण/बहाने भी तलाश लेते हैं।
जैसे सिविल सेवा का अभ्यर्थी यह सोच कर हार मानने लगता है कि इस परीक्षा में सफलता उसकी किस्मत में ही नही.... उसकी भी स्कूलिंग अगर अच्छे जगह से हुई होती तो वो भी आसानी से सफल हो जाता...
हिंदी माध्यम वाला सोचता है कि अंग्रेजी माध्यम वालो की विशेष बढ़त और स्तरीय सामग्री की उपलब्धता के चलते उनको सफलता नही मिल सकती... कुछ लोग सफलता की सांख्यिकी देख कर ही खुद को समझा लेता हैं कि सफलता दर 1% से भी कम है तो ज्यादा जान देने में समझदारी नही....
अगर अच्छी आर्थिक स्थिति होती तो हम भी अमुक ब्रांडेड कोचिंग में पढ़ाई करके सफल हो जाते... हम तो गांव में रहते हुए सफलता की कल्पना भी नही कर सकते, इत्यादि इत्यादि.....(हमारा मन बहुत स्मार्ट होता है, पलायन करने के 200 तार्किक बहाने सुझा सकता है)
कहने का तात्पर्य यह कि हिम्मत जब जवाब देने लगती है और लक्ष्य असम्भव जैसा लगने लगता है तो हम खुद को अनेक प्रकार से लक्ष्य से समझौता करने के लिए समझाने लगते हैं।
ऐसे ही अवसर पर आज की प्रांसगिकता है। गांधी जी के करो या मरो के नारे को अपनी रग रग में घुलने और आग लगा देने की हद तक अनुमति दीजिये। आंखें बंद करके महसूस कीजिये कि जब दुनिया के सबसे क्रूर और पाश्विक दमन के बावजूद जब निहत्थी जनता अपना सर्वस्व झोंकने को तैयार हुई होगी तो इसमें कितने आत्मोत्सर्ग की जरूरत पड़ी होगी....
जब निहत्थी जनता पर हेलीकाप्टर और मशीनगन से गोलियों की बौछार की गई होगी तो भी सर पर कफ़न बांध कर घर से निकलने में कितनी हिम्मत की जरूरत पड़ी होगी...
बस उस विषम परिस्थिति में उस संघर्ष की कल्पना करिए, और उसी साहस को आत्मसात करते हुए आप अपने लक्ष्य पर फिर पूरी ताकत से भीषण हमला कीजिये...
अपना सर्वस्व दांव पर लगा देने की मानसिकता में आइये। सोचिए कि जब आप अपने घर, अपने गांव, अपने लोगों के बीच में किस प्रकार से याद किये जाएंगे...
अपने माता पिता का चेहरा याद करिये कि जब आपने एक बड़ा लक्ष्य चुना होगा( आई ए एस बनने का) तो उनकी आंखों में क्या चमक आई होगी... कैसे वो एक एक दिन आपकी भव्य सफलता की सूचना सुनने को तड़प रहे होंगे....
आप अपनी संतान के लिए कैसा पिता बनना चाहेंगे... किसी कर्मक्षेत्र से हिम्मत हार कर भागा हुआ पिता या फिर काल के कपाल पर अपने कर्मयोग से किस्मत की मनचाही रेखाएं बना लेने वाला पिता...
मनुष्य की शोभा पुरुषार्थ में ही है। इसलिए स्वयं को गांधी जी का 'करो या मरो' का मंत्र दीजिए... और सब कुछ भूल कर बस आत्मोसर्ग कर दीजिए अपने लक्ष्य के प्रति...
' तू रख हौसला वो मंजर भी आएगा,
प्यासे के पास चलकर समंदर भी आएगा...
थक हार के ना रुकना ऐ मंजिल के मुसाफिर
मंज़िल भी मिलेगी मिलने का मज़ा भी आएगा..'
ज्यादातर मामलों में जब हम हिम्मत हारते हैं और संघर्ष से भागते हैं तो मंज़िल बस चंद कदम और होती है... क्रिकेट का भी नियम है कि विकेट पर जो आखिरी गेंद पड़ने तक जमा रहा, उसी के विजयी होने की संभावना ज्यादा होती है। हड़बड़ी में विकेट गंवा देने वाले को तो हारना ही होता है।
संसाधनों का रोना रोने वालों को एक बात साफ साफ समझ लेनी चाहिए कि दुनिया मे जितने भी लोगों ने असाधारण और महान कार्य किये हैं उनमें से ज्यादातर ने दशरथ मांझी की तरह ही विपरीत परिस्थितियों में पहाड़ चीर कर अपना रास्ता बनाया है।
मुझे याद है कि सिविल सेवा में जब लगातार दो प्रयासों में मुझे असफलता मिली तो एक बार को मैं भी हताश हो गया और अब पलायन के विचार मन मे आने लगे। मैंने अपने बालसखा स्वामी जी Mrityunjay Kumar Mishra से जब कहा कि यहां दिल्ली का संघर्ष बहुत गंदा है। इससे अच्छा कि गांव लौट आता हूँ।मैने गलती की,जो अपनी औकात से बड़ा लक्ष्य चुन लिया...गांव में पीपल की छांव में बैठेंगे...नल का ठंडा पानी पियेंगे, गांव में पढ़ाऊंगा और भी जाने क्या क्या...
स्वामी जी ने घृणा से मुझे देखा और कहा- हाँ हाँ, क्यों नही। जरूर भाग आइये। यहां तो लोग आपका तख्ते-ताउस पर बैठाकर स्वागत करेंगे। अपने गांव के वीर-बाँकुरे का...आपसे ही तो गांव के साधनहीन बच्चों को प्रेरणा मिलेगी की कैसे पलायन किया जाता है। ऐसी बात सोचते हुए शर्म नही आई??
मैं वाकई शर्म से गड गया। और फिर गांधी जी के इसी मंत्र 'करो या मरो' को गांठ बांध लिया। सही तरीके से अपना सब कुछ झोंक देने पर सफलता मिल ही गई आखिर....
आज भारत छोड़ो आंदोलन की वर्षगांठ पर युवा साथियों को बस अपने लक्ष्य को पाने के लिए इसी 'करो या मरो' के मंत्र को आत्मसात करने की जरूरत है। बस एक बार और पूरी ताकत से आखिरी करारा प्रहार... अपनी समूची ताकत से एक हमला और...
और गांधी जी की बस एक बात और..." हर भारतीय को, जो आज़ादी चाहता है और उसके लिए प्रयत्नशील है, अपना मार्गदर्शक खुद बनना होगा" आपको भी ऐसी कठिन परिस्थितियों में अपना प्रेरक, मार्गदर्शक और सारथी खुद ही बनना होगा....
बस याद रहे-
रगड़ता जा एड़ियां इसी रेगिस्तान पर
मुझे यकीन है पानी यहीं से निकलेगा
एक बार और 'करो या मरो'... 'अगस्त क्रांति' को अपने पुरुषार्थ और आत्मोसर्ग की एक सलामी जरूर दीजिये....ईश्वर बहुत दयालु है...आपको अवश्य अपनी मेहनत का उचित फल मिलेगा...
शुभास्ते पंथानः
-:आस्था नन्द पाठक:-
(आलेख fb से)
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