विशेष: लोकसभा चुनाव व मीडिया: रघुठाकुर
विशेष में प्रस्तुत है: लोकसभा चुनाव व मीडिया पर 24 जुलाई 2019 को
लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय संरक्षक तथा दुखियाबाणी के संपादक- महान समाजवादी चिंतक व विचारक- साथी रघु ठाकुर द्वारा लिखित "लेख"
हाल में सम्पन्न हुये संसदीय चुनाव अभियान में फिर एक बार वंशवाद पर बहस सुरु हुयी है। इस बहस से कितना परिणाम निकलेगा वंशवाद थमेगा या कुछ हालात बदलेगे यह कहना आज संभव नही है। हो सकता है कि यह भी सत्तारुढ़ दल का चुनावी कार्ड हो।
आजकल चुनाव के समय राष्ट्रीय दल किसी मुद्दें या सवाल को अपना हथियार बनाते है। जिस प्रकार ताश के खेल में खिलाड़ी नहले पर दहला या एक से बड़े दूसरे कार्ड को अजमाते हैं, उसी प्रकार आज राजनीतिक दलों का हाल है। अब कोई कार्यक्रम या मुद्दें किसी राजनीतिक दल के निष्ठा और संकल्प से उपजे कार्यक्रम नही होते। केवल सामने वाले को हराने के लिए कार्ड खेले जाते हैं।
यह भी आश्चर्यजनक सत्य है कि मीडिया भी इन कार्ड को फैलाने का माध्यम बनता है और जिस प्रकार राजनैतिक दलो के लिए यह मुद्दे कोई विचार के मुद्दे नही होते बल्कि केवल मतदाता को गुमराह करने के लिए एक काल्पनिक सन्देश होते हैं, उसी प्रकार मीडिया के लिए यह मुद्दे बगैर घोषित विज्ञापन के आर्थिक लाभ के मुद्दे होते है। दरअसल इस समय देश में दो प्रकार के विज्ञापन बाजार में है। एक तो वे विज्ञापन जो घोषित रुप से विज्ञापन के नाम से दिये जाते है। तथा अगर सम्पूर्ण नही तो थोड़ा बहुत उत्तरदायी होते है। इस अर्थ में कि इन विज्ञापनो का खर्च जाहिर तौर पर होता है, जो चुनाव खर्च में शामिल होता है। और दूसरी तरफ ये जरुरत में कम विश्वसनीय होते हैं, क्योंकि लोग उन्हें विज्ञापन के रुप में या पैसे से खरीदे प्रचार और स्थान के रुप में देखते व जानते है।
इसलिए पत्रकारिता के बाजार ने एक नया विज्ञापन का तरीका निकाला है। जिसे ’’पैकेज डील’’ कहा जाता है। यह पैकेट सीधे ऊपर के स्तर पर तय होती है और मीडिया घराने के मालिक प्रबंधक सीधे मूल्य तय करते है। अमूमन कितना स्थान चाहिये उसकी बाजार दर से विज्ञापन रेट की राशि ले लेते है तथा फिर अपने मातहतो को और कर्मचारियो को आवष्यक दिशा-निर्देश पहुंचा देते है।
देश की राजनीति में वंशवाद को जारी रखना और वंषवाद को बनाये रखने के लिए यह पैकेज रुपी डील के रुप में अघोषित विज्ञापन ज्यादा कारगर होते है। एक प्रकार का मीडिया द्वारा आक्रामक युद्व जैसा सुरु होता है जो लगातार मुख्य पृष्ठ पर विभिन्न तरीको से खबरें बनाता और पेश करता है तथा रोज पेज पढ़कर आम आदमी व मतदाता प्रत्याशी को श्रेष्ठ और सब चीजो का हल करने वाला देवता जैसा मानने लगता है। चूंकि उसकी अपनी एक पंक्ति भी समाचार पत्रो में न आती है न आ सकती है। अतः उसे अचानक मीडिया के गर्भ से पैदा हुए यह लोग महान और बड़े नजर आने लगते है। मीडिया के ऐसे आक्रामक युद्व से लगभग 7-8 साल पहले देष में एक गाॅधी का क्लोन तैयार किया गया था। जिसे अब गाॅव के बाहर चंद समर्थक भी नही मिलते। मीडिया की भूमिका कोई पहली बार हुई हो ऐसा नही बल्कि यह दशको से घट रही दुर्घटनाए है। सत्ता और मीडिया के साथ भी यही खेल चलता है। जब भी कोई नई सत्ता आती है तो मीडिया उसे भगवान बताने लगते है।
उसका खानदान-इतिहास बीबी-बच्चे नातेदार सभी रातों-रात मीडिया के मुख्य पृष्ठ पर आ जाते है। केन्द्र और राज्यो के बजट पर बीबियाॅ राय देने लगती है और कुछ समय पश्चात जब वह मीडिया की चकाचैध में जनता को भूल जाता है तथा जनमत की कसौटी पर गिरावट की ओर जाता है तो मीडिया उसे माचिस की जली तिल्ली के समान फेंक देता है तथा पैकेज से ऊभरे नए देवी देवताओं की वंदना करने लगता है।
म.प्र. में ही 16-17 दिसम्बर 2018 के सरकार गठन के तत्काल बाद से ही क्रमशः पूर्व मुख्य मंत्री- श्री शिवराज सिंह चैहान मीडिया की तालिका में नीचे सरकते गए। जिन मुख्यमंत्री की महानता के गुण और कहानिया प्रसारित कर मीडिया अपने आप को धन्य मानता था, अब 6 या 7 वे पेज पर उनका छोटा सा समाचार देकर उन पर कृपा कर देता है।
बहरहाल इन हालात में सरकारें अपने लिए अनुकूल जनमत तैयार करती है तथा यह जानते हुए कि उनका कार्यक्रम न पूरा होना है न उन्हें करना है, वे प्रचार करा लेते है।
यह प्रक्रिया 70 के दशक से ही आरंभ हो गई थी, जब स्व. इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया था और देश के उस जमाने के पूंजीवाद और मीडिया ने उन्हें गरीबों का मसीहा स्थापित कर दिया था। यह बात अलग है कि न उनके जीवन काल में न अभी तक गरीबी हटी है । 1989 में भी स्व. विश्वनाथ प्रताप सिंह को देश के महान मीडिया ने भ्रष्ट्राचार के खिलाफ महानायक के रुप में खड़ा किया था। महानायक तो दुनिया से चल गए, परन्तु भ्रष्ट्राचार निरंतर बढ़ रहा है और फल फूल रहा है।
2014 के लोकसभा चुनाव घोषणा के पहले अचानक कांग्रेस सरकार ने दो फैसले किए थे:
1. जैन धर्मालम्बियों को धार्मिक अल्प संख्यक की सूची में षामिल करना और अन्य
पिछड़ी जाति को केन्द्र की आरक्षण सूची में षामिल करना।
2. दूसरे जाट जाति को आरक्षण की सूची में शामिल करना।
इस प्रकार शामिल करने की एक वैधानिक प्रक्रिया होती है। जिसके लिये पिछड़ा वर्ग आयोग की सिफारिश अनिवार्य होती है
यह कोई मामूली रहस्य नही था कि पिछड़ा वर्ग आयोग ने जो तात्कालिक कांग्रेस सरकार द्वारा गठित और कांग्रेस पृष्ठ भूमि के लोगो के द्वारा ही बना था ने जाट जाति के आरक्षण के प्रस्ताव को अमान्य कर दिया था। क्या यह सरकार की इच्छा के बगैर संभव था?
आयोग या संस्थाओं की स्वायत्ता कानून में लिखी होती है, परन्तु व्यवहार में उसकी वास्तविकता को हम लोग रोज देखते है।
जाहिर है कि कांग्रेस के मित्र लोग एक तौर से दो शिकार कर रहे थे। एक तरफ जाटो को आरक्षण देकर उनका वोट लेना और दूसरी तरफ वैधानिक खामियो को छोड़कर न्यायिक स्थगन को अवसर देना। यही हुआ भी कि न्यायपालिका ने आयोग की सिफारिश के अभाव में आरक्षण रोक दिया।
म.प्र. में भी संभवतः 6 मार्च को मुख्यमंत्री जी ने सरकार की ओर से पिछड़ी जातियो को मंडल कमीशन के अनुसार 27 प्रतिषत आरक्षण की घोषणा आम सभा में की तथा ८ तारीख को राज्य सरकार की ओर से अध्यादेश जारी करने का प्रस्ताव राज्यपाल को भेज दिया, जबकि 5 मार्च को मंत्रिमंडल की आखिरी बैठक हुई थी। इस बैठक में इस संबध में कोई प्रस्ताव सरकार नही लाई थी। इतना ही नही उसके कुछ दिन पूर्व म.प्र. विधानसभा का सत्र समाप्त हुआ था और उसमें भी कोई प्रस्ताव नही आया था। यह सभी को पता है कि सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की एक मोटा-मोटी 50 प्रतिषत सीमा रेखा तय की है। अगर उससे आगे जाना हो तो उसके लिए भी संवैधानिक प्रक्रिया है कि विधानसभा प्रस्ताव पारित करे फिर संसद उस जाति को षामिल करने का प्रस्ताव तथा संविधान सशोधन के रुप में पारित आरक्षण वृद्वि का प्रस्ताव लाये जो कि पूर्णतः वैधानिक और नीति संगत है, क्योंकि मंडल कमीशन ने पिछड़ी जातियो को 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रस्ताव किया है। और वही केन्द्र में लागू है। परन्तु म.प्र. में श्री दिग्विजय सिंह सरकार ने 50 प्रतिशत सीमा रेखा के नाम पर केवल 14 प्रतिशत आरक्षण देकर खाना पूर्ति कर दी थी। अगर वे भी चाहते तो इसे प्रदेश विधानसभा से पारित कराकर संसद की स्वीकृति को भेजते। 1991 से लेकर 1996 तक तो स्व. नरसिंहराव प्रधानमंत्री थे और कांग्रेस सरकार थी तो उनकी ही पार्टी की सरकार थी। उसके बाद भी साझा मोर्चो की सरकार में जो लोग नियंत्रक थे वे अपने विचार के तौर पर 27 प्रतिषत आरक्षण के पक्ष में थे और यह प्रस्ताव संसद में आसानी से पास हो जाता। 1999 से 2004 तक स्व.बाजपेयी के प्रधानमंत्री वाली सरकार थी। अगर वह म.प्र. विधानसभा के प्रस्ताव को रोकती तो उन्हें भी राजनैतिक हानि होती, परन्तु प्रस्ताव ही नही गया ।
चुंकि लोक सभा के चुनाव की घोषणा 10 मार्च को होनी थी अतः राज्यपाल जी ने भी तत्परता से अध्यादेश पर हस्ताक्षर कर दिये ताकि उनकी पार्टी को आलोचना का शिकार न होना पड़े। श्री शिवराज सिंह चौहान जो क्षत्रिय सम्मेलनों में जाते है और क्षत्रिय बन जाते है फिर चुनाव के समय पिछड़े बन जाते है, अपने 12 वर्ष के कार्य काल में विधानसभा में आरक्षण का प्रस्ताव नही ला पाये। और जो अपेक्षित था तथा जिसे कांग्रेस व भाजपा नेतृत्व वखूबी जानता था कि अध्यादेश को न्यायालय स्थगित करेगी वही हो गया। अब तो यहाॅ तक समाचार आए है कि प्रदेश सरकार ने प्रस्ताव भेजा था उसमें चिकित्सा षिक्षण संस्थाओ में आरक्षण देने का प्रावधान ही नही था। जबकि मंडल कमीशन की सिफारिश नौकरी और शिक्षण संस्थाओं दोनो की थी। यह भी विचित्र न्याय है कि भारत के सुप्रीम कोर्ट ने सवर्णो को दिये गए 10 प्रतिशत आरक्षण के खिलाफ प्रस्तुत याचिका जिसमें यह कहा गया था कि आरक्षण की मात्रा 50 प्रतिशत से अधिक हो रही है इसलिए सवर्ण आरक्षण को रोका जाए को मानने से इंनकार कर स्थगन नही दिया। और दूसरी तरफ म.प्र. उच्च न्यायालय ने पिछड़े वर्ग के आरक्षण की मात्रा को बढ़ाए जाने वाले आदेष को तत्काल प्रभाव से स्थगित कर दिया।
न्यायपालिका के ऐसे अलग-अलग निर्णयों की कहानियो का आधार न्यायपालिका ही बता सकती है। लगता है कि, पिछड़ा वर्ग फिर एक बार राजनैतिक दलो की टीमो का फुटवाल जैसा बन गया है।
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