विशेष: रोटी - कपड़ा - मकान और देश के विकास की जंग: छात्र संतोष कुमार
पटियाला विश्वविद्यालय के जर्नलिज्म के छात्र- श्री संतोष कुमार की विशेष प्रस्तुति:
रोटी, कपड़ा और मकान मनोज कुमार जी द्वारा निर्देशित, अभिनीत एक ऐसा सत्य है, जो हर व्यक्ति के जीवन के तीन मूलभूत आधार हैं। जिन पर जीवन की नींव रखी है।
खासकर भारत में, भले ही भारत की आबादी विश्व में दुसरे स्थान पर है।
परंतु यूरोपीय देशों की तरह सरकार यहाँ ग़रीबों की या बच्चों की ज़िम्मेदारी नहीं लेती। केवल रोटी, कपड़ा और मकान के बारे में भाषण देती है।
जब तक इन चीज़ों से ऊपर हम नहीं उठेंगे, तब तक देश के बारे में क्या सोचेंगे, क्या नए - नए अविष्कार करेंगे, कुछ नहीं। आज भी इस देश का एक बहुत बड़ा अमीर वर्ग गरीबी रेखा से नीचे जीवन जीता है। सत्य में अमीर वर्ग। यह सत्य तो हर कोई जानता है। किसी भी नेता से पूछो यही वह वर्ग है जो कुछ सामान, कम्बल, रुपयों के बदले अपना भविष्य नेताओं पर न्यौछावर कर देता है। और फिर चला जाता है भूख-प्यास की अँधेरी कोठरी में ज़िन्दगी से दो - दो हाथ करने के लिए। अमेरिका के लोगों की बात करें या किसी भी विकसित देश के लोगों की, वे लोग ज़िन्दगी को जीते हैं। हम लोग काटते हैं। वो लोग देश के प्रति समर्पित है। हम लोग स्वयं के प्रति। शायद उनके चुने प्रतिनिधि उनके बारे में सोचते हैं। इसलिए वे हमारी तरह नहीं है, यहाँ सिर्फ राजनीति है। अगर शिक्षा के आधार पर पढ़- लिख भी जाओ, नौकरी मिल भी जाए, तो बाकी की ज़िन्दगी धन दौलत जोड़ने में चली जाती है और बुढ़ापा उस धन से खुद का इलाज करवाने में। आज भारत में तकरीबन 10 में से 9 युवाओं की यही ज़िन्दगी है। काम करना, धन अर्जित करना और नशा। धन जोड़ने की दौड़ इस लिए भी ज़रूरी है क्योंकि यहाँ धन के बिना कुछ भी नहीं होता। सरकार केवल बातें ही करती है, कि अगर हमें वोट दो तो हम रोटी, कपड़ा और मकान देंगे। और वो सब देने में ही 5 वर्ष खत्म हो जाते हैं। भारत का युवा पढ़ा-लिखा है। जो Goggle जैसी कम्पनियों में उच्च पद पर कार्यरत है। भारत का युवा पढ़ाा-लिखा है तभी तो उसका इस दुनिया में नाम है। परंतु वह नाम उसका है, वह अपने देश के लिए पाता। क्योंकि यहाँ का सिस्टम भ्रष्ट है। और लोग इसे सुधारना नहीं चाहते। बस धर्म के नाम पर लड़ते रहो। विकास की तो बात ही नहीं आएगी। झुग्गी-झोपड़ियां तो सिर्फ वोट के वक़्त ही याद आती हैं। जब तक देश (देश के नेता) लोगों के बारे में और लोग देश के बारे में नहीं सोचेंगे। ये रोटी, कपडा और मकान की जंग चलती रहेगी। और भले ही कितने भी शिक्षित हो जाएं इस जाल से बहार नहीं निकल पाएंगे। क्योंकि यहाँ तो रोटी, कपडा और मकान का नाम ही शिक्षित हो जाता है रोटी की जगह स्पेशल थाली, कपड़े की जगह डिजाइनर ड्रेस, मकान की जगह बँग्ले। जितनी शिक्षा - उतना काम - उतनी डिमाण्ड।
सोचना होगा, देश के नागरिक को, देश के लिए और देश के नेताओं को, नागरिकों के लिए। तभी विकसित भारत स्थापित होगा।
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