निरुपमा श्रीवास्तव- पत्थर को मोम बनाती एक रचनाकार
प्रयागराज: आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है "कविता मनोवेग के प्रवाह को उत्तेजित करने का उत्तम साधन है। यह हमारे मनोभावों को उच्छवासित करके हमारे जीवन में एक नया जीव डाल देती है। यानी कविता वह साधन है जिसके द्वारा मानव का शेष सृष्टि के साथ रागात्मक संबंध का निर्वाह होता है।"
साहित्यिक रूप से काफी उर्वर अवध की माटी की अदबी खुशबू देश दुनिया में बिखेर रही निरुपमा श्रीवास्तव की कविताओं में यही बोध होता है। आज उनकी प्रखर साहित्य मनीषा का हर कोई कायल है।
विरासत में मिली काव्य सृजन की प्रेरणा और निज अन्तर्रात्मा की वेदना के सम्मिश्रित भाव ने साधारण सी निरुपमा को असाधारण व्यक्तित्व बना दिया है। उनके एक एक शब्द में मानवीय संवेदना छिपी है। फूलों और कलियों के बीच रहते हुए पीड़ित द्रवित मानवता का दर्द समझने के लिए जिस संवेदना की आवश्यकता होती है, वह निरुपमा श्रीवास्तव में कूट-कूट कर भरी है। आज उन्हें गीत, अगीत, गजल, छंद, मुक्तक, दोहा सृजन में महारत हासिल है।
आकाशवाणी और दूरदर्शन पर प्रसारण के साथ तमाम अन्य पत्र-पत्रिकाओं के समेत कादंबिनी जैसी प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका में उनकी विविध विधाओं की रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। जिसे पाठक बड़े ही चाव से पढ़ता है। इसके अलावा कवि सम्मेलनों के मंच निरुपमा के बगैर अधूरे समझे जाते हैं। यहां भी उन्हें अपनी रचनात्मक शक्ति के बूते काफी शोहरत हासिल है।
विशुद्ध रूप से रचना धर्मिता को जीवन का आवश्यक अंग बनाने वाली इस अति विशिष्ट विदुषी का जन्म 17 मार्च 1968 को होली के दिन कीटगंज इलाहाबाद (अब प्रयागराज) स्थित ननिहाल में तब हुआ था जब इलाहाबाद शहर हिंदू-मुस्लिम दंगे की आग में जल रहा था। इनके माता.पिता फैज़ाबाद (अब अयोध्या) जनपद के तारुन के निकट बेलगरा गांव के मूल निवासी थे। पिता सतीश चंद्र श्रीवास्तव श्री अनंत इंटर कॉलेज खपराडीह में प्रधानाचार्य और मां उषा श्रीवास्तव रामकली बालिका इंटर कॉलेज सुल्तानपुर में सहायक अध्यापिका थी।
सबसे खास बात यह कि इनकी मां प्रयाग महिला विद्यापीठ की छात्रा रहते हुए महान विदुषी महादेवी वर्मा की शिष्या थीं। कहा जाता है कि गुरु के आचरण को आत्मसात करने वाले शिष्य में गुरु के गुण अवश्य आते हैं। सो अपनी प्राचार्या महादेवी वर्मा से प्रभावित होकर उषा श्रीवास्तव (निरुपमा श्रीवास्तव की मां) रचना धर्मिता में आयी। इस दौरान उन्होंने बहुत कुछ लिखा परंतु उन्हें मंचों पर मुखर होने का अवसर नहीं मिला।
निरुपमा श्रीवास्तव बताती हैं कि रचनाकार मां की शब्द साधना से सीख लेकर बचपन में ही तुकबंदी शुरू कर दी थी। इसी तुकबंदी ने आज अपने विशालतम स्वरूप में उन्हें कुशल शब्द साधिका बना दिया है। जब वह नौवीं कक्षा में पढ़ती थीं तब श्प "परिवर्तन" कहानी लिखा जो खूब सराही गयी। इसी दौरान माता-पिता के साथ माघ मेला देखने गयी।
निरुपमा के अंदर की वेदना एक भिखारी की दशा और भक्तों द्वारा नदी में फेंके जा रहे सिक्के देख जगी तो "एक टुकड़ा धूप का" क्षणिका फूटी, जो उनके साहित्यिक जीवन की पहली रचना बनी। यहीं से मिली प्रशंसा से उनका आत्मबल बढ़ा तो उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
आज उनका रचना संसार अत्यंत व्यापक है। पुरानी स्मृतियों पर जोर देते हुए बताती हैं कि जब वे बी ए प्रथम वर्ष की छात्रा थी तभी 17 वर्ष की आयु में उनके हाथ पीले कर दिए गए। वर्तमान में अंबेडकरनगर जनपद के भीटी तहसील के खजुरी गांव में ब्याह कर जब आयीं तब उनके पति अशोक कुमार श्रीवास्तव बीएचयू में एमएससी के छात्र थे। यह वह समय था जब गांव में शिक्षा का अभाव था और सुविधाएं नगण्य थी। ऐसे में भी ग्रामीण परिवेश में स्वयं को ढालने में उनका शहरी परिवेश कभी बाधक नहीं बना। सास-ससुर और पति के प्रोत्साहन से घर की जिम्मेदारियां संभालते हुए भी शब्द साधना उन्होंने जारी रखा।
जिंदगी के एक अजब संजोग भरे प्रसंग को याद कर भावुक निरुपमा श्रीवास्तव बताती हैं कि 14 सितंबर (हिंदी दिवस) के दिन जन्मी उनकी लाडली ननद सरिता श्रीवास्तव ने 14 सितंबर को ही अल्पायु में ही दुनिया को अलविदा कह दिया था। उनकी स्मृति में 1993 में परिजनों द्वारा खजुरी भीटी में आयोजित कवि सम्मेलन में कई दिग्गज रचनाकारों के साथ पहली बार काव्य पाठ का अवसर मिला तो फिर यह क्रम कभी रुका ही नहीं।अब तक वे अनवर जलालपुरी, मुनव्वर राना, रफीक शादानी, विकल साकेती, कैलाश गौतम, पारस भ्रमर, राधा पांडेय, सर्वेश अस्थाना, ताराचंद तन्हा, जमुना प्रसाद उपाध्याय, सौरभ प्रतापगढ़ी, कमलेश द्विवेदी, दयानंद सिंह मृदुल, रामानंद सागर, सोम ठाकुर, अदम गोंडवी समेत तमाम अन्य प्रख्यात साहित्य मनीषियों के साथ हजारों मंच साझा कर चुकी हैं। वर्तमान में वे अयोध्या जनपद के फैजाबाद शहर के कौशलपुरी स्थित अपने निजी मकान में परिजनों के साथ रहकर फैजाबाद के प्रसिद्ध टाइनी टॉट्स सीनियर सेकेंडरी स्कूल में हिंदी की वरिष्ठ शिक्षिका है। उनके पति खजुरी स्थित लिटिल एंजिल स्कूल के संस्थापक हैं। जिसे उनके पुत्र अर्चित चित्रांश संभालते हैं। पुत्री अमृता चित्रांशी उदया पब्लिक स्कूल में शिक्षिका हैं।
साहित्य सेवा के लिए जायसी पंचशती सम्मान, अवध भारती सम्मान, कादीपुर साहित्य सम्मान सहित उड़ान द्वारा दो बार सर्वश्रेष्ठ रचनाकार सम्मान से सम्मानित निरुपमा श्रीवास्तव की रचनाओं में गांव की कसक, निज माटी की खुशबू के साथ मानवता और राष्ट्र प्रेम की झलक दिखती है। उनकी रचनाएं एक दूसरे को जोड़ते हुए पत्थर को भी मोम बनाने की कूवत रखती हैं। अमीरी गरीबी की खाई को पाटने, जाति धर्म की संकीर्णता भरी दीवार को तोड़ने के साथ ही उनकी रचनाएं प्रेम और समर्पण की सीख भी देती हैं। यही नहीं उनकी कविताएं आत्मबल भी बढ़ाती हैं। एक रचना में लिखती हैं "क्यों हुए हैं आजकल जज्बात पत्थर" भेजते हो अपनों को सौगात पत्थर।
भय, भूख और भ्रष्टाचार पर वार करते हुए उन्होंने लिखा है- लहरों का आतंक बहुत है बस्ती में, एक-एक कर सारे घर खामोश हुए। कर्ज न अपना होरी कभी उतार सका, आंखें पथराई अधर खामोश हुए। इसी के साथ बुत हुई व्यवस्था पर उनका नजरिया कुछ यूं है- टूटे सपने जोड़ रहे होए सच से नाता तोड़ रहे हो। असर नहीं है जब उस बुत पर, फिर क्यों माथा फोड़ रहे हो। वर्तमान में बिगड़ रहे अमन चैन व सौहार्द जब उनके भीतर के नारी मन को व्यथित करते हैं तो यह रचना फूटती है। बुत परस्तों की न मुसलमां की बात करें, आओ मिल बैठकर अमनोअमां की बात करें। निरुपमा श्रीवास्तव अपनी संस्कृति, तहजीब की रक्षा की बात यूं करती हैं। दुआ तो निकलती है हरदम जिगर से निकाला है कश्ती को जिसने भंवर से। तहजीब की हद को जिसने भी लांघा, गिरा है जमाने की वो ही नजर से। गांव की अमराइयो की महक के आगे शहरी चकाचौंध को फीका मानते हुए एक गीत में लिखती हैं। उस खोखले आवरण के शहर में, अमराइ पीपल की छांव, तुम कैसे भूल गए गांव। इसके अलावा ओज और श्रृंगार पर भी उनकी गहरी पकड़ है।
जवानों को ललकारते हुए लिखती हैं- देश में धधक रही है आग, अरे तू अब तो शैय्या त्याग। तथा श्याम के रंग में सांवरी हो गई, जिंदगी प्यार की बांसुरी हो गई। मुफलिसी का चित्रण भी उनकी रचनाओं में मिलता है। यथा- मुझे तो चांद भी रोटी सा नजर आता है। हिंदी की कवयित्री हो और हिंदी के महत्व की बात न करे ऐसा कैसे हो सकता है। उन्होंने लिखा है- मैं सूरदास की दृष्टि बनी, तुलसी हित चिन्मय सृष्टि बनी। मैं मीरा के पद की मिठास, रसखान के नयनो की उजास... मैं हिंदी हूं।
कुल मिलाकर कविता ही निरुपमा श्रीवास्तव का ओढ़ना बिछौना है। वे कविता लिखती ही नहीं, कविता को जीती भी हैं। उनका मानना है कि साहित्य एक साधना है। इसमें व्यसायीकरण का कोई स्थान नहीं है। कोई सहज साहित्यकार नही बनता। मानवीय संवेदनाओ की सहज अनुभूतियों का भावावेग ही रचना का रूप धारण करता है। साहित्य ही व्यक्ति को अमरत्व प्रदान करता है। मातृभाषा का सम्मान करते हुए हृदय के भावों को लेखन में उतारने का निरंतर प्रयास करते रहना ही सफल रचनाकार के गुण हैं।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है साहित्य एक संवेदना का संदर्भ है। निरुपमा श्रीवास्तव उस सन्दर्भ को बखूबी जीती भी हैं। उनके अंदर भारतीय नारी के पवित्र संस्कार तो हैं ही एक विदुषी की रचना धर्मिता से जुड़ी तमाम साहित्यिक संभावनाएं भी हैं। कहा जाता है कि एक कली तब तक तड़पती है जब तक कि वह फूल बनकर खिल न जाए। निरुपमा की साहित्यिक तड़प भी किसी कली को विस्तार देने जैसी ही है। इनमें साहित्य की वह सुगंध है जिसमें रस पराग के ढेर सारे छींटे हैं।
(घनश्याम भारतीय, स्वतन्त्र पत्रकार/ स्तभकार)
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