वैष्यावृति: पेशा तो नैतिक ही होना चाहिये: रघुठाकुर
- मैं मानता हॅॅू कि पुलिस इतनी गिर चुकी है कि इन लाचार महिलाओं का भी आर्थिक व दैहिक शोषण करती है, परन्तु इसका हल इसे कानून का रुप देना नही बल्कि इन्हें वैकल्पिक रोजगार और समाज में स्वीकृति तथा अपनाना है।
- अगर इन्हें सरकारी और गैर सरकारी नौकरियो या रोजगारों में या काम धंधो में जगह मिल जाये तो यह वैधानिक और नैतिक तरीके से अपनी अजीविका की पूर्ति कर सकेगी। तब वैष्यावृत्ति पर अपने आप रोक लग सकेगी।
नयी दिल्ली: वैश्याबृत्त को कुछ लोगों द्वारा कानूनी पेशा बनाये जाने की प्रक्रिया पर तीखी प्रक्रिया व्यक्त करते हुए प्रख्यात समाजवादी चिंतक व विचारक तथा लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय संरक्षक- रघु ठाकुर ने कहा क़ि, पिछले कुछ वर्षो से बेश्याबृत्ति को, कानूनी पेशा बनाने को लेकर देश में बहस चलती रही है। कई सामाजिक संगठनों, महिला संगठनों ने भी, इस दृष्टिकोण का न केवल समर्थन किया है बल्कि इन महिलाओं के बीच जाकर उन्हें संगठित करने व उनकी पीड़ा अभिव्यक्त करने का सराहनीय कार्य भी किया है। पूर्व न्यायाधीष श्री संतोष हेंगड़े, व अन्य कुछ मित्रो ने वैष्यावृत्ति को कानूनी रुप देने के पक्ष में तर्क दिये है और उसे पेशे के रुप में प्रस्तुत करने का सुझाव दिया है, इस पर विचार जरुरी है।
एक प्रबुुद्व मित्र ने वैष्यावृत्ति को इतिहास की परम्परा बताया है और उन्होंने चाणक्य के काल में भी बेश्याएँ थी, फिर देवदासियो और बाद में गणिकाओं से लेकर नृत्य क्रिया में संलग्न नर्तकियों के उदाहरण और संदर्भ श्लोक लिखकर वैष्यावृत्ति को कानूनी बनाने के श्री संतोष हेगडे के पक्ष का समर्थन किया है तथा यथार्थ वादी होने का दावा किया है। उन्होंने दुनिया के अनेक देशों में यह कानूनी है ऐसा लिखकर भी समर्थन किया है तथा बगैर कानून के बेश्याओं पर होने वाले पुलिसिया अत्याचार और पोषण की चर्चा की है। इस संदर्भ में इन तर्को पर भी विचार जरुरी है:-
(1) क्या वैष्यावृत्ति कोई नैतिक पेशा है या व्यवस्था है?
राजतंत्र और सांमती जमानो में नर्तकियाॅ होती थी और ये सामंतों और शक्तिशाली सेनापतियो के सामने नृत्य करने को विवस होती थी। धीरे-धीरे इन नर्तकियो को एक प्रकार का जातीय रुप मिल गया तथा वे पीढ़ी-दर पीढ़ी इसी पेशे का काम करने लगी। उनका नृत्य किसी कला के विकास का नही था बल्कि लाचारी थी। शक्ति तलवार में या सम्पन्नता में व अंधविष्वासों में भी होती है। चाणक्य काल के बाद यह नर्तकिया वेश्या या कोठे वाली बन गई। जिनके कोठो पर जाकर धन-बल के शक्तिवान व्यक्ति अपनी यौन कुण्ठाओं विकृतियों की पूर्ति करने जाने लगे। एक उम्र तक वे नाचती थी फिर उन्हें पैसे से खरीद लिया जाता था, जिसे नथ खोलना कहा जाता था और वे अपनी सुन्दरता तक या सेठ की सम्पत्ति कायम रहने तक उसकी रखैल या अवैधानिक औरत बन कर रह जाती थी। उनके होने वाले बच्चो को पिता की सम्पत्ति में से हिस्सा नही मिलता था बल्कि उन्हें माॅ के पेशे से अपना जीवन चलाना पड़ता था। देवदासियो को भगवान के प्रति समर्पित कर पण्डो के भोेग के इस्तेमाल के लिए छोड़ दिया जाता था। अब समाज के विकास के साथ देवदासी प्रथा बंद हो गई। जिस पर कानूनी रोक लगी, यह अच्छा हुआ है।
अगर इन प्रबुद्व जनो के वैष्यावृत्ति के तर्क को स्वीकार किया जाय तो फिर उन्हीं तर्को के आधार पर देवदासी प्रथा का भी समर्थन करना होगा। समाज का विकास होता है और अतीत की परम्पराओं को उसके पक्ष का तर्क नही माना जाता।
व्यवसाय नैतिक होना चाहिये न कि अनैतिक। अपराध को नही रोक पाना अपराध को कानूनी बनाने का तर्क नही हो सकता। जुआ, सट्टा को कानूनी बनाओ क्योंकि रुक नही पा रहा, शराब को कानूनी बनाओ क्योंकि बंद नही हो पा रही, वैष्यावृत्ति को कानूनी बनाओं क्योंकि रुक नही पा रही।
आखिर इसका अंत कहाॅ होगा? कानून के बावजूद भी डकैती, हत्याये बंद नही हो पा रही है तो क्या इन्हें कानूनी पेशा बना दिया जाये। कानून को लागू न करा पाना व्यवस्था की असफलता है न कि नैतिक सामाजिक मूल्य और स्वीकृत कानून की असफलता है।
(2) व्यवसाय वह होता है जो व्यक्ति अपनी स्वेच्छा से चुनता है। क्या वैष्यावृति का पेशा कोई महिला स्वेच्छा से चुनती है?
मेरे ख्याल से वह उन सामाजिक कु-परम्पराओं से लाचार होती है जो उसे तथाकथित सभ्य समाज के बंद दायरे में प्रवेश नही करने देते।
जो पुरुष धनवान सम्पन्नता के आधार पर वैष्याओं के कोठे पर जाते है उनका जाति धर्म, सामाजिक स्तर जस का तस रहता है परन्तु वह लाचार नारी समाज से बहिष्कृत हो जाती है। उनकी एक अलग दुनिया और अलग जाति बन जाती है।
वैष्यावृति भी या तो पेट की लाचारी के लिये या समाज व्यवस्था की लाचारी के कारण मजबूरी में स्वीकार किया हुआ पेषा है। यह पेशा ही नही बल्कि एक प्रकार की लाचारी है जो बलात्कार से भी बदतर है।
जो महिला पुरुष के बलात्कार की शिकार होती है उसके प्रति समाज में कम से कम दया होती है परन्तु पेट की लाचारी के लिये वेष्या बनी महिलाओं को पेट और बच्चे के खातिर स्चेच्छा से बलात्कार करवाना पड़ता है पर उनके प्रति समाज में दर्द नही होता है बल्कि हीन भावना या घृणा होती है।
(3) कुछ लोग तर्क देते हे कि बढ़ती आबादी में बलात्कार का हल वैधानिक वैष्यावृति है, परन्तु वह यह भूल जाते है कि वैष्यावृति पेट की लाचारी से स्वीकृत बलात्कार है।
क्या वेष्या किसी भोग की इच्छा से वैष्यावृति करती है? या उसके सामने भूख से मरता बच्चा और उसकी पूर्ति, बीमार बच्चे का इलाज आदि की लाचारियाॅ होती है।
अजीब बात है कि हमारे प्रबुद्व जन ताकत के आधार पर किये बलात्कार को बलात्कार मानते है और लाचारी में स्वीकृत किये बलात्कार को बलात्कार नही मानते।
अगर मान लो इसे कानूनी पेशे का रुप दे दिया जाये तो क्या समाज के सांमत, व संभ्रात लोग अपने परिजनों को इस व्यवसाय में जाने देना चाहेंगे? यह एक कटु प्रष्न हेै परन्तु इसमें तमाम प्रश्नों के उत्तर छिपे है।
(4) मैं मानता हॅॅू कि पुलिस इतनी गिर चुकी है कि इन लाचार महिलाओं का भी आर्थिक व दैहिक शोषण करती है, परन्तु इसका हल इसे कानून का रुप देना नही बल्कि इन्हें वैकल्पिक रोजगार और समाज में स्वीकृति तथा अपनाना है। अगर इन्हें सरकारी और गैर सरकारी नौकरियो या रोजगारों में या काम धंधो में जगह मिल जाये तो यह वैधानिक और नैतिक तरीके से अपनी अजीविका की पूर्ति कर सकेगी। तब वैष्यावृत्ति पर अपने आप रोक लग सकेगी।
हमारे समाज में आमतौर पर हिजड़ो के लिये जो उनकी चयनित लाचारी नही बल्कि प्रकृतिप्रदत लाचारी है को आमतौर पर और ऐतिहासिक तौर पर षिखंडी कह कर घृणित दृष्टि से देखा जाता रहा है उन्हें परिवार व समाज ने स्वीकृत करने की बजाय बहिष्कृत कर दिया। इसके परिणाम स्वरुप उनकी एक अलग दुनिया बनी और वे लाचारी में अपराधिक, अनैतिक व निरर्थक कार्यो में लग गये। परन्तु अभी कुछ समय पूर्व मैंने उन्हें परिश्रम के काम करते हुये देखा।
दुर्ग रेलवे स्टेशन पर अधिकांश कुली आदि जैसे काम यही उभय लिंगी कर रहे है और मेहनत की रोजी रोटी कमा कर अपराधिक मुक्त जीवन जी रहे है। जिस भी अधिकारी ने इसकी शुरुआत की है मेरा उसको अभिनन्दन।
समाज में विकृति का हल छिपाना या शाब्दिक तर्क देकर वैधानिक बनाना नही है बल्कि वैकल्पिक रोजगार और समाज की स्वीकार्यता है। अगर ऐसे ही उपाय वैष्यावृत्ति के धंधे में फॅसी बहिनो के लिये निकाले जाये तो हल निकल सकता है। जो लोग विदेशों में कानून का तर्क दे रहे है वे भूल जाते है कि अब वहाॅ स्थितियाॅ कहाॅ पहॅुच गई है।
थाईलैण्ड जैसे देशों में छोटी-छोटी बच्चियों को होटलों में परोसा जाता है। उनके विज्ञापन निकलते है। दुनिया का सभ्य समाज वहाॅ जाकर अपनी कुण्ठाओं की पूर्ति करता है।
अब यहाॅ तक स्थिति हो गई कि माता-पिता ने स्वेच्छा से अपनी बच्चियो को इस धंधे में भेजना शुरू कर दिया है। वे शराब के नशे में घर पड़े रहते है और बेटियाॅ देह बेचती है।
जो लोग क्रान्तिकारिता के नाम पर वैष्यावृत्ति को वैधानिक कानून बनाना चाहते है, वे आते हुये तूफान देखने व उससे बचने के रास्ते खोजने के बजाय रेत में गर्दन छिपा रहेे है।
आज महानगरो में गरीबी और बेरोजगारी के चलते या फिर भोग बिलास की पूर्ति के लिये मध्यवर्ग की बच्चियाॅ भी स्वेच्छा से तन बेच कर धन कमाती है। उनके माता-पिता समझते हुये भी उन्हें रोक नही सकते। पर यह वातावरण हमारे समाज के मूल आधार को ही खत्म कर देगा।
एक अराजक समाज का उदय होगा जो कितना भयानक होगा इसकी कल्पना भी कठिन है इसलिये समाज को और व्यवस्था को समय रहते चेतना चाहिये और हल खोजना चाहिये।
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