मराठा, दलित मुद्दे या चुनावी राजनीति ?
मुंबई: नब्बे के दशक में जब मंडल आयोग की सिफारिशें लागू की गई तब महाराष्ट्र सरकार में कुनबी जाति को ओबीसी में शामिल किया लेकिन मराठा जाति को नहीं। इस बात पर मराठा संगठन ने विरोध किया और कहा कि मराठा और कुनबी जाति एक ही है । 2009 में 'मराठा संघर्ष समिति' की स्थापना हुई और तब से आरक्षण के मसले को लेकर उन्होंने कई आंदोलन किए। 2014 मैं कांग्रेस - एनसीपी गठबंधन सरकार ने उनकी मांग को स्वीकार करते हुए मराठों को विशेष शैक्षणिक व सामाजिक दृष्टि से पिछड़ा घोषित किया और उन्हें 16% आरक्षण देने की घोषणा की लेकिन मुंबई उच्च न्यायालय ने इस निर्णय को असंवैधानिक करार दिया।
दलित मुद्दे पर सियासत गरमाती रहती है और इसी मुद्दे को पकड़कर मराठों ने मराठा आरक्षण की मांग की पुनरावृत्ति कर दी है। पुणे में मराठा आंदोलन का हिंसक स्वरूप देखने को मिला। तोड़फोड़, आगजनी और आत्महत्या जैसी घटनाओं को अंजाम दिया। आज आरक्षण एक विकराल समस्या के रूप में सामने खड़ा है। आरक्षण को खत्म करने के लिए जरूरी है कि आर्थिक नीतियों में सुधार किया जाए जिससे रोजगार बढ़े। आरक्षण का दायरा बढ़ाने से कुछ नहीं होगा क्योंकि सरकारी नौकरियां सीमित है। लोगों में असंतोष बढ़ेगा और जातिगत टकराव होंगे। मराठा आंदोलन इस समय कुछ कुछ गुजरात के पटेल आंदोलन जैसा स्वरूप धारण कर रहा है।
संविधान का अनुच्छेद 15 (4 ) कहता है कि किसी भी सामाजिक व शैक्षणिक रूप से पिछड़े हुए वर्ग की उन्नति के लिए राज्य विशेष प्रावधान कर सकता है अनुच्छेद 16 (4) राज्य को किसी भी पिछड़े वर्ग जिसका उसकी राय में राज्य के अधीन सेवाओं में उचित प्रतिनिधित्व नहीं है, पदों के लिए आरक्षित कर सकता है लेकिन दलित, मराठा समुदाय, अल्पसंख्यक इन सभी को आरक्षण देना क्या समस्या का समाधान है ?
कितनी ही प्रतिभाएं आरक्षण की भेंट चढ़ जाती हैं। सियासत के दांवपेचों में कितने ही गरीब और शोषित लोग पिस जाते हैं। मजे की बात है कि ये सब मुद्दे जब चुनाव करीब होते हैं तब तेजी से उछाले जाते हैं और तभी उन्हें दलित, वैचारिक स्वतंत्रता, शोषित वर्ग दिखाई देते हैं।
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