समाजवादी नेता - स्वर्गीय मधुलिमये के 96 वीं जन्म दिवस पर लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी ने गोष्ठी आयोजित की.
मधु लिमये को देखकर कांप उठता था सत्ता पक्ष.
मधु लिमये ने दुनिया को बताया कि संसद में बहस कैसे की जाती है. वो प्रश्न काल और शून्य काल के अनन्य स्वामी हुआ करते थे.__ रघु ठाकुऱ
लखनऊ, 01 मई: आज प्रदेश कार्यालय में लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी ने प्रखर समाजवादी नेता - स्वर्गीय मधुलिमये के ९६वीं जन्म दिवस पर एक गोष्ठी लखनऊ के जिला अध्यक्ष- अरुण तिवारी की अध्यक्षता में आयोजित हुयी.
इस अवसर पर पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष- सच्चिदा नन्द श्रीवास्तव ने बताया कि, प्रखर समाजवादी नेता - स्व. मधुलिमये का जन्म 01 मई 1922 को पूना में हुआ था तथा वे महान समाजवादी नेता - स्व. डा.राम मनोहर लोहिया के फालोवर थे.
जैसा कि,उन्होंने पढ़ा है और परमादरणीय रघु ठाकुऱ जी से सुना है कि, "साठ और सत्तर के दशक में एक शख़्स ऐसा हुआ करता था, जो कागज़ों का पुलिंदा बगल में दबाए हुए जब संसद में प्रवेश करता था तो ट्रेज़री बेंच पर बैठने वालों की फूंक सरक जाया करती थी कि न जाने आज किसकी शामत आने वाली है".
पार्टी के राष्ट्रीय संरक्षक- विख्यात समाजवादी चिंतक व विचारक तथा परमादरणीय समाजवादी नेता- रघु ठाकुर स्व. मधु लिमये को बहुत ही नजदीक से जान्ने वाले नेता है जो बताते हैं, "मधु आजीवन योद्धा रहे. वो 14-15 साल की उम्र में आज़ादी के आंदोलन में जेल चले गए और जब 1944 में विश्व युद्ध ख़त्म हुआ तब छूटे और जब गोवा की मुक्ति का सत्याग्रह शुरू हुआ तो उसमें वो फिर जेल गए और उन्हें बारह साल की सज़ा हुई."
वो बताते हैं, "यही नहीं जब उन पर लाठियाँ चलीं तो मुंबई के अख़बारों में छप गया कि 'मधु लिमये गेले' यानी मधु लिमये का निधन हो गया. बहुत से लोग उनकी पत्नी चंपा लिमये के पास श्रद्धांजलि देने पहुंच गए. इसके अलावा जब देश में आपातकाल लगा तो वो 19 महीनों तक जेल में रहे."
वो कहते हैं कि मधु लिमये की राय थी कि सांसदों को पेंशन नहीं मिलनी चाहिए. वो बताते हैं, "उन्होंने न सिर्फ़ सांसद की पेंशन नहीं ली बल्कि अपनी पत्नी को भी कहा कि उनकी मृत्यु के बाद वो पेंशन के रूप में एक भी पैसा न लें. 1976 में जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल के दौरान संसद का कार्यकाल एक साल के लिए बढ़ा दिया तब भी उन्होंने पांच साल पूरे होने पर लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफ़ा दे दिया."
मधु लिमये ने दुनिया को बताया कि संसद में बहस कैसे की जाती है. वो प्रश्न काल और शून्य काल के अनन्य स्वामी हुआ करते थे.
जब भी ज़ीरो आवर होता, सारा सदन सांस रोक कर एकटक देखता था कि मधु लिमये अपने पिटारे से कौन-सा नाग निकालेंगे और किस पर छोड़ देंगे.
मशहूर पत्रकार और एक ज़माने में मधु लिमये के नज़दीकी रहे डॉक्टर वेद प्रताप वैदिक याद करते हैं, "मधुजी ग़ज़ब के इंसान थे. ज़बरदस्त प्रश्न पूछना और मंत्री के उत्तर पर पूरक सवालों की मशीनगन से सरकार को ढेर कर देना मधु लिमये के लिए बाएं हाथ का खेल था."
वो बताते हैं, "होता यूँ था कि डॉक्टर लोहिया प्रधान मल्ल की तरह खम ठोंकते और सारे समाजवादी भूखे शेर की तरह सत्ता पक्ष पर टूट पड़ते और सिर्फ़ आधा दर्जन सांसद बाकी पाँच सौ सदस्यों की बोलती बंद कर देते. मैं तो उनसे मज़ाक में कहा करता था कि आपका नाम मधु लिमये है. लेकिन आप बड़े कटु लिमये हैं!"
पार्टी के प्रदेश इकाई के सचिव - सतीश चंद्र ने इस अवसर पर भागीदारी करते हुए बताया कि, आदरणीय रघु ठाकुर बताते हैं कि, मधु लिमये को अगर संसदीय नियमों के ज्ञान का चैंपियन कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी.
मधु लिमये की सादगी का आलम ये था कि उनके घर में न तो फ़्रिज था, न एसी और न ही कूलर. कार भी नहीं थी उनके पास. हमेशा ऑटो या बस से चला करते थे.
चटख गर्मी में कूलर या एयरकंडीशनर की जगह पंखे से निकलती गरम हवा में सोना या खुद चाय, कॉफ़ी या खिचड़ी बनाना न तो उनकी मजबूरी थी और न ही नियति. यह उनकी पसंद थी.
सतीश चंद्र ने कहा कि जैसा कि, आदरणीय रघु ठाकुर जी बताते हैं, "एसी उन्होंने कभी लगाया नहीं. जब बाद में वो बीमार पड़े तो हम लोगों ने काफ़ी ज़िद की कि आपके यहाँ एसी लगवा देते हैं. लेकिन वो इसके लिए तैयार नहीं हुए.
वो कभी-कभी हमारे स्कूटर की पिछली सीट पर बैठ कर जाया करते थे. इतनी नैतिकता उनमें थी कि जब उनका संसद में पांच साल का समय ख़त्म हो गया तो उन्होंने जेल से ही अपनी पत्नी को पत्र लिखा कि तुरंत दिल्ली जाओ और सरकारी घर खाली कर दो."
बहुत ही पारदर्शी व्यक्तित्व था मधु लिमये का. ईमानदारी उनमें इस हद तक भरी हुई थी जिसकी आज के युग में कल्पना भी नहीं की जा सकती.
अंत में अध्यक्ष- अरुण तिवारी जी ने बताया कि, उन्होंने एक जगह पढ़ा है कि, "वेद प्रताप वैदिक ने बताया हैं कि, एक बार मैं उनके घर में अकेला था. डाकिए ने घंटी बजाकर कहा कि उनका 1000 रुपए का मनीऑर्डर आया है. मैंने दस्तख़त करके वो रुपए ले लिए. शाम को जब वो आए तो वो रुपए मैंने उन्हें दिए. पूछने लगे कि ये कहाँ से आए. मैंने उन्हें मनीऑर्डर की रसीद दिखा दी. पता ये चला कि संसद में मधु लिमये ने चावल के आयात के सिलसिले में जो सवाल किया था उससे एक बड़े भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ हुआ था और उसके कारण एक व्यापारी को बहुत लाभ हुआ था और उसने ही कृतज्ञतावश वो रुपए मधुजी को भिजवाए थे.
वो बताते हैं, "रुपए देखते ही मधुजी बोले हम क्या किसी व्यापारी के दलाल हैं? तुरंत ये पैसे उसे वापस भिजवाओ. दूसरे ही दिन मैं खुद पोस्ट ऑफ़िस गया और वो राशि उन सज्जन को वापस भिजवाई."
1977 में जब जनता पार्टी बनी तो मोरारजी देसाई ने उन्हें मंत्री बनाने की पेशकश की. लेकिन उन्होंने वो पद स्वीकार नहीं किया.
अरुण तिवारी ने बताया कि, आदरणीय रघु ठाकुर जी से ही उन्होंने सूना है कि, "पहले उनका नाम जनता पार्टी के अध्यक्ष पद के लिए तय हुआ था. सुबह इसका एलान होना था. लेकिन जब मोरारजी देसाई इसका एलान करने के लिए खड़े हुए तो कुछ लोगों ने उन्हें रोका और जोड़-तोड़ करके उन्हें अध्यक्ष नहीं बनने दिया गया.
उसके बाद उनसे कहा गया कि आप विदेश मंत्री बन जाइए. लेकिन उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया. तब उनसे कहा गया कि आप अपने स्थान पर किसी को नामज़द करिए. तब उन्होंने छत्तीसगढ़ के एक समाजवादी नेता पुरुषोत्तम कौशिक का नाम सुझाया. इस तरह कौशिक को मोरारजी मंत्रिमंडल में जगह मिली."
अपने समापन वक्तव्य के अंत में अध्यक्ष ने इससे प्रेरणा लेने और अपने जीवन में उसे उतारने का संकल्प दिलाते हुए सबको धन्यवाद दिया और गोष्ठी के समापन कि घोषणा की.
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