
सुप्रीम कोर्ट (लाइव लॉ): भर्ती मामलों में CBI जांच का आदेश देना सही नहीं, इसे केवल असाधारण मामलों में ही दिया जाना चाहिए
नई दिल्ली (लाइव लॉ): सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार (16 अक्टूबर) को इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला रद्द कर दिया, जिसमें उत्तर प्रदेश विधान परिषद और विधानसभा सचिवालयों की भर्ती प्रक्रिया में कथित अनियमितताओं की CBI जांच का निर्देश दिया गया था।
जस्टिस जेके माहेश्वरी और जस्टिस विजय बिश्नोई की खंडपीठ ने दोहराया कि CBI जांच एक असाधारण उपाय है, जो केवल दुर्लभ परिस्थितियों में ही उचित है, जैसे कि राज्य एजेंसियों के साथ समझौता किया गया हो, मौलिक अधिकार दांव पर लगे हों, या राष्ट्रीय महत्व के मुद्दे उत्पन्न हों। कोर्ट ने कहा कि, भर्ती विवाद आमतौर पर इस सीमा को पार नहीं करते, जब तक कि वे कोर्ट की अंतरात्मा को झकझोर न दें।
अदालत ने कहा, "यदि घटना के राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव हो सकते हैं और यह पूर्ण न्याय करने या मौलिक अधिकारों को लागू करने के उद्देश्य से हो सकता है तो अदालत ऐसे विवेक का प्रयोग कर सकती है। जब तक प्रथम दृष्टया आपराधिक कृत्य का खुलासा न हो जाए, तब तक केवल व्यापक टिप्पणियां CBI जांच का निर्देश देने के लिए पर्याप्त नहीं हैं।
आगे कहा गया कि,
भर्ती से संबंधित मामलों में नियमित रूप से CBI जांच का निर्देश देना उचित नहीं होगा, जब तक कि रिकॉर्ड में दर्ज तथ्य इतने असामान्य न हों कि अदालत की अंतरात्मा को झकझोर दें।"
अदालत ने आगे कहा,
"CBI को जांच का निर्देश देने की अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग संयम से, सावधानी से और केवल असाधारण परिस्थितियों में ही किया जाना चाहिए।
इस कोर्ट ने लगातार चेतावनी दी है कि CBI जांच को नियमित रूप से या केवल इसलिए निर्देशित नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि कोई पक्ष कुछ आक्षेप लगाता है या राज्य पुलिस में व्यक्तिपरक अविश्वास रखता है।
कहने की आवश्यकता नहीं कि, इस शक्ति का प्रयोग करने के लिए संबंधित कोर्ट को यह सुनिश्चित करना होगा कि प्रस्तुत सामग्री प्रथम दृष्टया अपराध के घटित होने का खुलासा करती है और निष्पक्ष जांच के मौलिक अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए CBI जांच को आवश्यक बनाती है, या जहां ऐसे आरोपों की जटिलता, पैमाना या राष्ट्रीय प्रभाव केंद्रीय एजेंसी की विशेषज्ञता की मांग करता है।"
सुप्रीम कोर्ट ने कहा,
CBI जांच का आदेश अंतिम उपाय के रूप में तब दिया जाना चाहिए, जब “संवैधानिक न्यायालय को यह विश्वास हो जाए कि प्रक्रिया की अखंडता से समझौता किया गया है या उसके पास यह मानने के कारण हों कि इसमें इस हद तक समझौता किया जा सकता है कि इससे न्यायालयों की अंतरात्मा या न्याय वितरण प्रणाली में जनता का विश्वास डगमगा जाए। एक सम्मोहक मामला कोर्ट के ध्यान में लाया जाना चाहिए, “जब प्रथम दृष्टया प्रणालीगत विफलता, उच्च पदस्थ राज्य अधिकारियों या राजनीतिक रूप से प्रभावशाली व्यक्तियों की संलिप्तता की ओर इशारा करता हो, या जब स्थानीय पुलिस का आचरण ही नागरिकों के मन में निष्पक्ष जांच करने की उनकी क्षमता के बारे में उचित संदेह पैदा करता हो।”
Cause Title: LEGISLATIVE COUNCIL U.P. LUCKNOW & ORS. VERSUS SUSHIL KUMAR & ORS. (and connected matters)
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(समाचार & फोटो साभार- लाइव लॉ)
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