
*दशहरा विशेष*: *जलते पुतले, उभरता रावण: दशहरे का बदलता अर्थ*
"पुतलों का दहन नहीं, मन और समाज के अंत में बुरे लोगों का संहार ही असली संदेश है।"
दशहरे पर रावण के पुतले जलाना केवल परंपरा नहीं, बल्कि बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है। लेकिन आज पुतले केवल मनोरंजन लेकर रह गए हैं, जबकि समाज में दुर्व्यवहार, हिंसा, वासनाएं और अन्य बुराइयाँ लगातार बढ़ रही हैं। असली रावण हमारे अंदर और समाज में मौजूद हैं। यही समय है कि हम अपने मन के रावणों को पहचानें, उन्हें त्यागें और समाज से अपराध, छल-कपट और अन्य अधर्मों को नष्ट करने का संकल्प लें। दसवाँ दशहरा वास्तव में विजयादशमी बन सकता है।
-:डॉ. सत्यवान सौरभ:-
भिवानी, हरियाणा: आज दशहरे के विशेष प्रस्तुति में प्रस्तुत है, कवि, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट - डॉ सत्यवान 'सौरभ' के लेख जिसका शीर्षक है - "*दशहरा विशेष*: *जलते पुतले, उभरता रावण: दशहरे का बदलता अर्थ*"।
*दशहरा विशेष*: *जलते पुतले, उभरता रावण: दशहरे का बदलता अर्थ*:
आज दशहरा एक मनोरंजन का ट्रेंड बनकर उभर रहा है। लोग पुतले जलाते हैं, फोटो और वीडियो धमाल मचाते हैं, सोशल मीडिया पर शेयर करते हैं। लेकिन इस विचार का समय संभवतः यही विचार है कि यह रावण दहन केवल पारंपरिक कार्यान्वयन के लिए नहीं था, बल्कि हमें आत्ममंथन और सामाजिक सुधार का अवसर देने के लिए शुरू हुआ था।
रामायण की कथा में रावण केवल एक पात्र नहीं था, बल्कि वह बुरे लोगों का प्रतीक था जो मनुष्य का पतन होता है और ले जाता है-अहंकार, अभिलाषा, छल, क्रोध और अधर्म। रावण महाज्ञानी, शिवभक्त और शूरवीर के रूप में भी अपना एक दोष-वासना और व्यवहार-के कारण विनाश प्राप्त हुआ। दशहरा हमें यही याद दिलाता है कि अगर बुराई का खज़ाना कितना शक्तिशाली क्यों न हो, उसकी अंततः नाश निश्चित है।
लेकिन आज दशहरे का स्वरूप बदला गया है। अब रावण दहन व्यावसायिक और दिखावटी उत्सव में बदल गया है। हर साल पुतले और बड़े पैमाने पर बनाए जाते हैं, पुतले पर लाखों रुपए खर्च होते हैं। रिपोर्ट में बताया गया है कि पिछले कुछ सालों में रावण पुतलों की संख्या कई गुना बढ़ गई है, लेकिन समाज में अपराध और बुरे लोगों की संख्या घटने की बजाय बढ़ गई है।
आज के दौर में रावण केवल पुतलों तक सीमित नहीं है। वह हमारे बीच, हमारे आस-पास, हमारे अंदर मौजूद है। समाज में अपराध, बलात्कार, हत्या, डकैती हिंसा, रिश्वतखोरी, गरीबी और नशे की लत जैसी घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। रिश्ते के पतन की भी चिंता का विषय है- मां-बाप, भाई-बहन, यहां तक कि बच्चों तक की हत्या की खबरें आए दिन सामने आती हैं। आज का इंसान अधिकतर पढ़ा-लिखा और आधुनिक है, लेकिन बुरीइयाँ भी उतनी ही तेजी से पठ रही हैं।
दूसरी बात यह है कि जिस रावण को हम हर साल जलाते थे, वह अकेला था। विद्वान था, नीतिज्ञ था, अपना परिवार और राज्य की प्रति कर्तव्यनिष्ठा थी। उसका एक अन्यायपूर्ण विनाश उसे ओर ले गया। लेकिन आज का रावण—यानी आज का अपराधी और बुराई का प्रतीक—उससे कहीं अधिक हिरण, धुर्त और निर्लज्ज है।
दशहरे का पर्व हमें यह याद दिलाने के लिए है कि बदइयाँ कितने भी साथी क्यों न हों, उन्हें मिटाना ही होगा। लेकिन केवल पुतले को ख़त्म करने से बुरीइयाँ ख़त्म नहीं हुईं। हमें यह लिखा होगा कि आज का रावण बाहर ही नहीं, अंदर भी है। हर इंसान के अंदर व्यवहार, क्रोध, वासना, लालच और लालच जैसे रावण मौजूद हैं। जब तक इनका दहन नहीं होगा, तब तक समाज में शांति और न्याय संभव नहीं।
अंतिम निष्कर्ष के साथ हमें यह संकल्प लेना चाहिए कि हम अपने जीवन से कम-से-कम एक बुराई को दूर करें। दशहरे का संदेश तब तक सार्थक रहेगा जब तक समाज सामूहिक रूप से मुक्ति, हिंसा, नशाखोरी, शराबखोरी और महिला शोषण जैसे बुरे लोगों के खिलाफ खड़ा हो जाएगा।
आज के दौर का सबसे बड़ा संकट यह है कि समाज बुराइयों के प्रति संवेदनाहीन हो रहा है। हर दिन की बदनामी, हत्या और बदमाशों की चपाती खबरों में हैं, लेकिन हम उन्हें सामान्य तलाश बताते हैं। अंतिम निष्कर्ष के बाद हम चेन से घर लौटे, मानो बुराई का अंत हो गया। सच तो यह है कि आज के रावण सर्वत्र हैं। वे महलों में भी रहते हैं और झोपड़ियाँ भी। वे पढ़े-लिखे भी हैं और अशिक्षित भी। वे राजनीति, व्यापार, शिक्षा और समाज के हर क्षेत्र में उभरे हुए हैं।
राम केवल एक ऐतिहासिक या धार्मिक पात्र नहीं, बल्कि आदर्श और विरासत का प्रतीक हैं। राम का अर्थ धर्म का पालन है। राम का अर्थ सत्य और न्याय का संघर्ष है। राम का अर्थ मर्यादा और कर्तव्यनिष्ठा है। लेकिन आज का समाज राम के गुणों को नापसंद करने के बजाय केवल राम के नाम का राजनीतिक और धार्मिक उपयोग कर रहा है। परिणाम यह है कि रावण जलते हैं, पर मन के रावण और समाज के रावण और अधिक शक्तिशाली हथियार हो जाते हैं।
दशहरा हमें अवसर देता है कि हम रुककर रॉकेट-क्या हम अपने अंदर के रावण को पहचान पा रहे हैं? हम अपने जीवन में एक भी बुरा काम क्या पाते हैं? हम समाज को बेहतर बनाने के लिए क्या कोई ठोस कदम उठा रहे हैं? यदि इन सॉस का उत्तर "नहीं" है, तो हमें स्वीकार करना होगा कि रावण दहन केवल एक परंपरा बनकर रह गया है।
सबसे बड़ी बर्बादी यह है कि हम सिर्फ पुतले जलाने की घटनाएं नहीं खेलते, बल्कि अपने अंदर और समाज में मौजूद रावणों को पहचानते हैं और उनका संहार करने का साहसिक प्रदर्शन करते हैं। तेरहवीं दशहरा एक छठवीं अर्थ में विजयादशमी बनी कील। जब-जब हम अपने अंदर के व्यवहार, वासना और लोभ को परास्त करेंगे, तब-तब हमारे अंदर का राम जीवित रहेगा। और तब हम कहते हैं कि रावण का मॉडल मेरा है।
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