
मुस्लिम क़ौम में इत्तेहाद का फ़ुक़दान, ज़िल्लत व रुसवाई का सबब: एम डब्ल्यू अंसारी (आई.पी.एस)
मतहिद हो तो बदल डालो ज़माने का निज़ाम
मुन्तशिर हो तो पिटो, शोर मचाते क्यों हो?
लखनऊ: एम डब्ल्यू अंसारी (आई.पी.एस) ने विज्ञप्ति जारी कर "मुस्लिम क़ौम में इत्तेहाद का फ़ुक़दान, ज़िल्लत व रुसवाई का सबब" शीर्षक से जारी अपने प्रस्तुतियों में कहा है कि, तमाम मुसलमानों का यक़ीन ही नहीं मुकम्मल अकीदा है कि हमारा रब एक है, हमारा नबी एक है वही आख़िरी पैग़म्बर हैं, हमारा कलिमा एक है, हमारी किताब एक है जो दुनिया में सबसे ज़्यादा पढ़ी जाने वाली किताब है। हमारा सब कुछ एक है।
लेकिन इसके बावजूद मुसलमान कई टुकड़ों में बटे हुए हैं? कई सतह पर बटे हुए हैं। कई लिहाज़ से बटे हुए हैं और इत्तेहाद व इत्तेफ़ाक़ का नारा महज़ बकवास साबित हो रहा है। कहीं मज़हबी तौर पर फ़िर्क़ा–मसलक वग़ैरा में तो कहीं समाजी तौर पर अशरफ़िया, पसमांदा, अरज़ाल, रज़ील में बटे हुए हैं। अगर कहीं मुसलमान तालीमी और इक़्तेसादी तौर पर मज़बूत हैं भी तो उनकी एक टोली/गुरूह है और उनकी दुनिया ही अलग है, वो तमाम के तमाम एक हैं लेकिन अपने उन भाइयों के लिये जो सबसे निचले तबक़े के हैं और हर लिहाज़ से दबे कुचले हैं, जिनकी हालत क़ाबिले रहम है, इन हज़्रात ने ऐसे ग़रीब व बेसहारा लोगों के लिये कभी काम नहीं किया। उनको अगर हिक़ारत की नज़र से भले ही न देखते हों मगर उनको एहसास तो होता ही है कि इस दुनिया में उनका कोई नहीं है, बस एक ख़ुदा का सहारा है। इसी तरह से वो तमाम मज़हबी और सियासी मुतहर्रिक रहनुमा, वो तमाम मज़हबी और सियासी रसूख़ रखने वाले लोग अपने फ़िर्क़ा–मसलक, या अपनी सियासी पार्टी के मैनिफ़ेस्टो की लाइन पर बात करते हैं, चाहे इससे क़ौम व मिल्लत का बहुत बड़ा ख़सारा ही क्यों न हो जाये।
अल्ग़र्ज़ मुसलमान मज़हबी तौर पर, समाजी तौर पर, और सब से बढ़ कर सियासी तौर पर मुनक़सिम हैं, चाहे इसका तअल्लुक़ इलाक़ाई या नज़रीयाती ही क्यों न हो। यानी मुसलमानों में कभी भी इत्तेहाद व इत्तेफ़ाक़ हो ही नहीं सकता है। इत्तेहाद व इत्तेफ़ाक़ नामुमकिन ही मालूम होता है।
मुसलमानों ने इस्लाम का सबसे बड़ा सबक़, यानी मुसावात और अख़ुव्वत-ए-इस्लामी को सब से पहले भुला दिया। ब्राह्मण व शूद्र की तरह मुसलमानों ने भी अपने अंदर अशराफ़, अज्लाफ़ और अरज़ाल की दीवारें खड़ी कर लीं। हालाँकि ये ऊँच-नीच, जात–पात इस्लाम में नहीं है लेकिन इस्लाम के मानने वालों ने अमली तौर पर उसे क़ायम कर रखा है।
सैय्यद, शैख़, पठान, मुघल, मलिक और अफ़ग़ान आज भी ख़ुद को “आला जात” समझते हैं। जबकि क़ुरैशी, अंसारी, राइनी, मंसूरी वग़ैरा आज भी “पसमांदा” या “निचला तबक़ा” कहलाए जाते हैं। यहाँ तक कि निकाह व रिश्ता दारी के वक़्त भी सब से पहले पूछा जाता है: “बरादरी क्या है?” इसका मतलब ये हुआ कि मुसलमान क़ब्रिस्तान तक साथ जाएँगे और कुछ हद तक ही नहीं, काफ़ी हद तक दस्तरख़्वान पर भी एक साथ बैठने को तैयार हैं मगर रिश्ते नाते में एक साथ बैठने को तैयार नहीं हैं।
क्या अदमे मुसावात और इस्लाम के हुक्म की ख़िलाफ़वर्ज़ी नहीं?
अगर बात की जाये सियासी मैदान की तो मुसलमान यहाँ भी बदहाल हैं। उनकी शिरकत न होने के बराबर है। मुसलमान जिस भी पार्टी से मुन्तसिब हो उसकी औक़ात पार्टी में महज़ नारा लगाना, दर्री उठाना और कुरसियाँ लगाना है। मुसलमानों पर हो रहे मज़ालिम के ख़िलाफ़ न तो उसकी पार्टी और न वो ख़ुद आवाज़ बुलंद कर सकता है, क्योंकि वो पार्टी के मैनिफ़ेस्टो के ज़ाब्तों से बंधा हुआ है। जो भी मुसलमान जिस भी पार्टी में है उसको पार्टी की लाइन पर ही काम करना है। मुसलमानों की फ़लाह व बहबूद के लिये नहीं। क्योंकि हर जगह मनुवादी और पूँजीवादी अनासिर का बोलबाला है और फ़ौरन सेक्युलरिज़्मका नारा बुलंद कर दिया जाता है जैसे सेक्युलरिज़्म को ढोने का काम सिर्फ़ मुसलमानों का ही है। बहुत से मुसलमान बी जे पी से मुन्तसिब हैं मगर बी जे पी के ज़रिये की जाने वाली ज़ुल्म व ज़्यादती उनको दिखाई नहीं देती, नيز कोई कांग्रेस को ही अपना सब कुछ समझा हुआ है। मगर कांग्रेस मुसलमानों पर हो रही ज़ुल्म व ज़्यादती और मुसलमानों की शनाख़्त को ख़त्म करने की नापाक़ कोशिशों पर ख़ामोश है। यही हाल समाजवादी पार्टी, बी एस पी, आर जे डी, टी एम सी, एन सी पी के साए में रह रहे मुसलमानों का है।
अफ़सोस कि हमारे मज़हबी रहनुमा भी ख़ुद अपनी ज़ात, जमाअत, फ़िर्क़ा और मसलक तक महदूद हैं। उम्मत को जोड़ने के बजाय ये ख़ुद नयी नयी जमाअतों और इदारों में बटे हुए हैं। कहीं मसलक तो कहीं जात पात, तो कहीं फ़िर्क़ावारियत का बोलबाला है। कहीं मिलाद, कहीं उर्स हो रहा है, या अली मदद, बड़े बुज़ुर्गों की क़ब्रों, दरगाहों पर जलूस और उनसे मदद तलब करने में मशग़ूल हैं। मिल्लत इसी में बटी हुई है मगर कोई भी क़ुरआन की दर्स व तदरीस, मानी के साथ पढ़ने पढ़ाने की बात नहीं करता है। अमल करने और कराने की बात नहीं करता है। कुल मिला कर मिल्लत जश्न मना कर बरीअज़्ज़िम्मा होना चाहती है। हर चीज़ में जश्न और बस जश्न मनाया जाता है, इससे आगे कुछ नहीं।
आज तक एक भी मुश्तरका मुस्लिम प्लेटफ़ार्म नहीं बन सका, और न ही कोई इज्तिमाई क़ियादत सामने आयी। मुसलमानों का कोई मुश्तरका एजेंडा (Common Agenda), कामन आइडियोलॉजी (Common Ideology) नहीं है जिसमें मुसलमानों की तालीम, रोज़गार, तहफ़्फ़ुज़, विरासत, और गंगा जमुनी तहज़ीब की हिफ़ाज़त जैसे नक़ात शामिल हों। जिस तरीक़ा से मनुवादी और पूँजीवादी अनासिर का कामन एजेंडा हुआ करता है। 1947 के बाद से मुस्लिम वोट हमेशा “तक़सीम” होकर दूसरों के हाथों इस्तेमाल हुआ, मगर हमें आज तक मुसलमानों ने होश के नाख़ुन नहीं लिये। सच तो ये है कि सियासत में मुसलमानों का कोई वज़न नहीं है और न ही उनके अंदर सियासी और समाजी शऊर है, क्योंकि हम आपस में ही एक दूसरे के वज़न घटाने और टांग खींचने में लगे रहते हैं और नतीजा ये हुआ कि हमारी नुमाइंदगी पार्लियामेंट हो या सूबाई इवान, सब जगह सिफ़र हो कर रह गयी है। आबादी के तअनुसुब से हमारी नुमाइंदगी नहीं है।
भारत के मुसलमानों का तक़रीबन 15-20% फ़ीसद ख़ुशहाल तबक़ा अपनी ऐश व इशरत में मस्त है। उनके बच्चे इंग्लिश मीडियम और बैरूनी यूनिवर्सिटियों में पढ़ते हैं। वो बड़े शहरों के आलीशान घरों में रहते हैं। कभी फ़ार्म हाउस पर तो कभी खेतों पर पार्टियाँ होती हैं। उनकी सोच, उनकी फ़िक्र अपने तक महदूद है, वो अपनी ज़ात और अपनी फ़ैमिली के लिये और ज़्यादा से ज़्यादा रिश्तेदारों तक महदूद है। कभी भी सबसे निचले दबे कुचले लोगों के लिये खुल कर मुनज़्ज़म तरीक़े से उनकी फ़लाह बहबूद के लिये काम नहीं किया। वरना क्या वजह है कि मुसलमानों में सबसे ज़्यादा इक़्तेसादी तफ़ावत (Economic disparity) है। आज सबसे ज़्यादा भिखारी, मज़दूर और ग़रीबी लाइन से नीचे मुस्लिम तबक़ा है।
आज मुसलमानों का सबसे अमीर और ख़ुशहाल तबक़ा ने अपने सबसे दबे कुचले और ग़रीब भाइयों की बस्तियों का रुख़ नहीं किया और न उनके लिये आज तक कोई ठोस पहल/क़दम उठाये, जिसमें उनकी माली, तालीमी, समाजी हालत बेहतर हो सके और ऊपर से ये बयानीया जारी कर दिया गया कि मुसलमान पढ़ता लिखता नहीं है, ये कभी नहीं कहा जाता कि मुसलमानों को पढ़ने लिखने नहीं दिया गया। हर वो काम किया गया जिससे मुसलमान दूयम/सूयम दर्ज़ा के शहरी बन कर रहें। कभी किसी जगह ग़रीबों के लिये स्कूल, लाइब्रेरी या अस्पताल वग़ैरा बुनियादी सहूलतें मुहैया नहीं करायीं। अमीर और ख़ुशहाल तबक़ा के लोग तक़रीरें करने, तसवीरें खिंचवाने में और अपने आप को समाज में बड़ा दिखाने में मशग़ूल और पेश पेश रहते हैं और फिर अपनी दुनिया में ग़ुम हो जाते हैं। जब कभी कोई मुस्लिम समाज पर आफ़त, मुसीबत, ज़ुल्म व ज़्यादती की बात होती है तो “मुसलमान ख़तरे में है” का नारा दिया जाता है और इत्तेहाद व इत्तेफ़ाक़ की बात की जाती है।
मुल्क के तूल व अर्ज़ में फैले हुए वसीअ ख़ित्त-ए-अर्ज़ में न जाने कितने ही मज़लूम व बेसहारा लोग मुश्किलात का सामना कर रहे हैं लेकिन जो ख़ुशहाल तबक़ा है वो उनकी तरफ़ कभी मुड़ कर भी नहीं देखता। सबसे निचले तबक़े के ये लोग तन तनहा हैं, कोई उनके लिये काम नहीं कर रहा है और न आज तक कभी किसी ने किया। यही वजह है कि मुसलमानों में इत्तेहाद नहीं है और न आइन्दा होगा, जब तक कि हर एक मुसलमान हर कलिमा गो को अपना भाई तसव्वुर न करे।
मुसलमानों ने तालीम को अपना हथियार बनाने के बजाय उसे नज़रअंदाज़ कर दिया। हालाँकि होना तो ये चाहिये था कि चाहे एक रोटी कम खाएँ, सस्ता कपड़ा पहनें, मगर आने वाली नस्ल को दीनि व दुनियावी तालीम से आरास्ता करें। दीनि व दुनियावी मयारी तालीम को हर हाल में अपनाएँ। दीनि तालीम से आख़िरत तो सुधरेगी ही, अच्छे अख़लाक़ भी पैदा होंगे, नيز दुनियावी मयारी तालीम से समाज के चैलेंजज़ का मुक़ाबला करने का हौसला मिलेगा। समाजी और सियासी शऊर पैदा होगा जो समाज में इज़्ज़त व क़द्र देगा।
ये भी एक हक़ीक़त है कि जब तक कोई क़ौम इक़्तेसादी तौर पर ताक़तवर न हो, उसकी आवाज़ सियासत में भी नहीं सुनी जाती। मुसलमान न सनअतकार बन सके, न सरमाया कारी की सम्त में आगे बढ़े। हम सिर्फ़ छोटे मोटे रोज़गार तक महदूद रह गये हैं, जबकि दूसरी क़ौमें मार्केट और मआशत पर क़ाबिज़ हो गयीं।
जब जात बरादरी हर जगह हाइल हो। जब सियासी जमाअतों का एजेंडा मज़ीद मुसलमानों को कमज़ोर कर रहा हो। जब अशरफ़िया और नाम निहाद आला जात के लोग अपने ग़रीब भाइयों से मुँह मोड़ लें। ऐसे में इत्तेहाद की बात करना महज़ जुमलेबाज़ी है।
हक़ीक़त ये है कि मुसलमानों में कभी इत्तेफ़ाक़ व इत्तेहाद था ही नहीं और आइन्दा भी नहीं हो सकता, जब तक कि हम अपनी बीमार सोच और समाज में फैली ऊँच नीच से ऊपर नहीं उठेंगे।
ये भी एक हक़ीक़त है कि हम वो क़ौम हैं जो जल्सों में इत्तेहाद के नारे लगाती है, मगर अपने घरों में नाइत्तेफ़ाक़ियाँ कभी बरादरी के नाम पर तो कभी आला और अदना के नाम करती है। हम वो क़ौम हैं जो इस्लाम का मुसावात का दर्स देती है, मगर अपनी बेटी का निकाह निचली जात में करने को आर समझती है। हम वो क़ौम हैं जो हर इंतेख़ाब में धोखा खाती है, मगर फिर भी नहीं संभलती। क़ुरआन का भी हुक्म है कि अल्लाह उस क़ौम की हालत कभी नहीं बदलता जो ख़ुद अपनी हालत बदलने पर आमादा न हो। सवाल ये है कि क्या हम अपनी हालत बदलने पर आमादा हैं? या फिर सदीयों तक इसी ज़वाल में डूबे रहना चाहते हैं?
हमारे मसाइल की सही तसवीर कभी भी मेन स्ट्रीम मीडिया में नहीं आती। इसके बावजूद हमने आज तक अपना मज़बूत मीडिया नेटवर्क नहीं बनाया, जो हमारे एजेंडे को दुनिया के सामने रख सके।
अब भी वक़्त है कि हम तमाम तरह की पसमांदगी से, चाहे वो तालीमी, समाजी, सियासी, इक़्तेसादी वग़ैरा से बाहर निकल कर इत्तेहाद व इत्तेफ़ाक़ का नारा ही न लगाएँ बल्कि मुत्तहिद होने के लिये हर वो काम करें जिससे सब मुत्तहिद हों और मुन्तशिर होने से बचें। जिन जिन चीज़ों ने हमें तक़सीम किया है या कर रही हैं उनसे बचें। हर कलिमा गो आपस में एक दूसरे को भाई माने तो हम उम्मीद करते हैं कि मुस्लिम क़ौम ज़रूर मुत्तहिद होगी। वरना ये इन्तिशार हमें आज तक ज़लील व रुसवा कर रहा है और आगे भी करता रहेगा।
आज हमें तहज़ीबी/सक़ाफ़ती यकजहती (Cultural Integration), तालीमी यकजहती (Academic Integration), फ़हम व फ़रासात शऊर यकजहती (Intellectual Integration) के लिये आपस में काम करने की ज़रूरत है। तालीमी बेदारी चलाई जाये, मुश्तरका मुस्लिम प्लेटफ़ार्म, मुश्तरका काम एजेंडा वग़ैरा बनाया जाकर काम करने की ज़रूरत है। जात पात और बरादरी से ऊपर उठ कर क़ौम के लिये काम करने का आम मिज़ाज बनाया जाये। तालीम और आला तालीम, रोज़गार, मआशी ख़ुदकफ़ालत पर तवज्जो दी जाये। अपनी शनाख़्त, विरासत, मातृभाषा और गंगा जमुनी तहज़ीब को बचाने और फ़रोग़ देने के लिये काम करना होगा और ये सब करने के लिये मज़बूत मीडिया प्लेटफ़ार्म बनाये जायें ताकि इंसानियत पर होने वाले तमाम मज़ालिम और हर तरह की ज़ुल्म व ज़्यादती के ख़िलाफ़ मौस्सिर आवाज़ बुलंद की जाये, तभी हम और हमारी क़ौम तरक़्क़ी कर सकती है।
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