*डॉक्टर और कंपनी का कपाट जाल: दवाओं की कीमत में उछाल*: प्रियंका 'सौरभ'
डॉक्टर फ़ोनटे ब्रांड, 38 रुपये की दवा की कीमत 1200 रुपये।
डेटशीट में कहा गया है कि केवल प्रिस्क्रिप्शन वाली दवा और ओवर-द-कटर दवा के प्रकार जो केवल फार्मेसियों में आरक्षित किए जा सकते हैं, उन्हें सभी फार्मेसियों में बिल्कुल एक ही स्टोर्स पर बेचा जाना चाहिए। इसलिए, दवाओं की फार्मास्युटिकल फार्मेसियों के बीच उद्धरण- संकेत नहीं दिया जाता है, इसका अर्थ यह है कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप अपने प्रिस्क्रिप्शन योग्यता के लिए किस फार्मेसी को किराए पर लेते हैं। यही नहीं दवा बनाने वाली कंपनी पर ये नियम लागू किए गए हैं कि उसे हर साल्ट का मूल्य भारत सरकार के अनुसार एक जैसा तय करना होगा, कोई ब्रांड भी नहीं होना चाहिए।
कीमत ब्रांड पर ना साल्ट पर हो टोकियो और कंपनियों के काले चॉकलेट पर लगाम लगे और मरीज को 300 पिज्जा का इजाज बारह हजार में ना खरीदार पड़े। प्लांट स्टॉक और ओवर-द-काउंटर स्टॉकर के प्रकार जो फर्मेसी के अलावा अन्य मानकों, जैसे कि नोकिया और कियोस्क में शामिल किए जा सकते हैं, उनके जिले में बदलाव की मात्रा सरकार से हो सकती है। ये पूरी तरह से अलग-अलग स्टोर द्वारा स्थापित किए गए हैं, इसलिए एक स्टोर से दूसरे स्टोर में आपको जिले में अंतर का अनुभव होता है।
-:प्रियंका 'सौरभ':-
हीरा (हरियाणा): आज की 'विशेष प्रस्तुति' में प्रियंका 'सौरभ', रिसर्च स्कोलर इन राजनीतिक विज्ञान, कवियित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार ने *डॉक्टर और कंपनी का कपाट जाल: दवाओं की कीमत में उछाल।* शीर्षक से अपनी प्रस्तुति में कहा है कि, देश में औषधियों की दुकानें सरकार नहीं बल्कि डॉक्टर शहीद तय कर रहे हैं। डॉक्टर अपने कहते हैं ब्रांडेड होते हैं। प्लांट फिक्स होते हैं। 38 रुपये की दवा की कीमत 1200 रुपये कर दी जा रही है। यह महज एक उदाहरण है, ऐसी औषधियां बनाई जा रही हैं। माना जा रहा है, 20 साल में 40 हजार करोड़ से ज्यादा का ड्रग बिजनेस 2 लाख करोड़ के करीब पहुंच गया है। इसका बड़ा कारण यह है कि वह अमेरिका में बड़े खेलों को मानते हैं। 2005 से 2009 तक 50 प्रतिशत एम.पी. पर दवाएँ बिक रही थीं। अगर 1200 रुपए का एम मार्क है तो 600 रुपए में दिया जाता था। अब डॉक्टर अपने खाते से ही एम्अपर तय करवा रहे हैं। जबकि डॉक्टर के अनुसार औषधियों का मूल्यांकन नहीं किया जाना चाहिए। दवाओं के रेट, दवा बनाने वाली दुकानें तय होती हैं। दवाइयों के रेट तय करने में कई कारक शामिल होते हैं। औषधियों पर दावत को अच्छा मुनाफ़ा होता है।
ब्रांडेड दवाइयों पर 20-25 प्रतिशत से अधिक की छूट दी जाती है। जेनेरिक औषधियों पर 50-70 प्रतिशत तक की छूट है। जेनेरिक दवाएँ संभावित हैं क्योंकि उन्हें खंडित नहीं किया गया है। दवा का निर्देशन समय, दवा के रैप्टर पर क्यूआर कोड होना चाहिए। दवा के रैपर पर क्यूआर कोड से दवा का नाम, ब्रांड का नाम, निर्माता की जानकारी, निर्माता की तारीख और एक्सपायरी की तारीखें हैं। दवाओं या उनके दस्तावेजों के बारे में जानकारी के लिए डॉक्टर या फार्मासिस्ट से पूछा जा सकता है। मगर जो दवाएं सरकार के नियंत्रण से बाहर हैं, उनमें वैज्ञानिक दवा की गुणवत्ता और एमएपी की निगरानी के लिए भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय के अधीन नेशनल मेडिसिनस्युटिकल एसोसिएटेड अथॉरिटी काम करती है। सरकार की ओर से उत्पाद के एमआरपी नियंत्रण को नियंत्रित किया जाता है। आवश्यक और जीवन रक्षक औषधियों के लिए डीपीसीओ की जिम्मेदारी निर्धारित करने के साथ-साथ औषधियाँ सस्ती और सुविधाजनक भी हैं।
सरकारी जिन औषधियों को डीपीसीओ के अंतर्गत लाया जाता है, उनका एम्प्राम तो नियंत्रण में होता है, लेकिन सैकड़ा फॉर्मूल की औषधियाँ आज भी सरकार के नियंत्रण से बाहर हैं, जिनका माप तो नियंत्रण में है। दवाइयों की दुकान में इज़ाफ़े को लेकर सरकार की हिस्सेदारी है कि एक साल में 10 प्रतिशत ही एमार्चमेंट जारी हो सकता है। लेकिन कूलीज़ प्रोडक्ट्स का नाम स्मृति हर साल पटाखों वाली एमरापियां बनी हुई हैं। कूलियन्स के अलग-अलग डिवीजन और ब्रांड डेयरी एम्अपार अपने अकाउंट से फिक्स कर आउटलेट्स हैं।
औषधि कारखानों से ही देश में औषधियां लिखी जाती हैं। इस खेल में सहयोगियों और शिक्षकों के लिए अपने मंज़ूरी के आधार पर कोई भी दवा बनाने की तैयारी नहीं की जाती है, बल्कि सिद्धांतों को भी तय कर दिया जाता है। यही नहीं इन कंपनियों से मोबाइल पर ही डील हो जाती है। तभी तो देश भर में डॉक्टर और अस्पताल में शहीद हुए लोगों के पास अपनी दवा की दुकानें हैं और मनमाफिक कीमत पर बिक रहे हैं। डॉक्टर और हॉस्पिटल तो अपनी दवाइयां बेच रहे हैं और माइक्रो पायलट का इस्तेमाल कर रहे हैं। इससे ही एक्सपायरी सेट होती है। अगर दवा में माइक पायलट की वास्तविक रूप से कम डाउनलोड कर दिया जाए तो समाप्ति बढ़ जाएगी, लेकिन एक्सपायरी का समय कम हो जाएगा। इसके पीछे कारण यह है कि मटेरियल और एक्सपायरी को लेकर सरकार की ओर से कोई डेटाबेस नहीं है। एक्सपायरी की डेट भी कूलियां तय करती हैं। सरकार के नियंत्रण में जो दवाएं हैं, उसे लेकर कुछ कहा गया है। बाकी चिकित्सा पर कोई विशेष पर्यवेक्षण नहीं है।
यह एक गंभीर विषय है कि उत्पादन का निर्माण, बिक्री या बिक्री करने वाली कंपनियां ही उत्पादन की सलाह निर्धारित करती हैं।
डेटशीट में कहा गया है कि केवल प्रिस्क्रिप्शन वाली दवा और ओवर-द-कटर दवा के प्रकार जो केवल फार्मेसियों में आरक्षित किए जा सकते हैं, उन्हें सभी फार्मेसियों में बिल्कुल एक ही स्टोर्स पर बेचा जाना चाहिए। इसलिए, दवाओं की फार्मास्युटिकल फार्मेसियों के बीच उद्धरण- संकेत नहीं दिया जाता है, इसका अर्थ यह है कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप अपने प्रिस्क्रिप्शन योग्यता के लिए किस फार्मेसी को किराए पर लेते हैं। यही नहीं दवा बनाने वाली कंपनी पर ये नियम लागू किए गए हैं कि उसे हर साल्ट का मूल्य भारत सरकार के अनुसार एक जैसा तय करना होगा, कोई ब्रांड भी नहीं होना चाहिए। कीमत ब्रांड पर ना साल्ट पर हो टोकियो और कंपनियों के काले चॉकलेट पर लगाम लगे और मरीज को 300 पिज्जा का इजाज बारह हजार में ना खरीदार पड़े।
प्लांट स्टॉक और ओवर-द-काउंटर स्टॉकर के प्रकार जो फर्मेसी के अलावा अन्य मानकों, जैसे सुपरमार्केट और कियोस्क में शामिल किए जा सकते हैं, उनके जिले में बदलाव की मात्रा सरकार से हो सकती है। ये पूरी तरह से अलग-अलग स्टोर द्वारा स्थापित किए गए हैं, इसलिए एक स्टोर से दूसरे स्टोर में आपको जिले में अंतर का अनुभव होता है।
*****